कवितालयबद्ध कविता
#चित्र प्रतियोगिता
बचपन के वो दिन
बचपन के वो दिन कितने अच्छे थे,
बेफ्रिकी के वो दिन कितने अच्छे थे ।
ना था कोई डर ,ना खतरे थे,
कितने खुश थे, जब हम बच्चे थे ।
इतने भारी भी कब, हमारे बस्ते थे,
लड्डू भी तब, कितने सस्ते थे ।
नानी के किस्से, भी कितने सच्चे थे ,
सपनों के वो दिन, कितने अच्छे थे ।
पेड़ों के झूले, कितने अपने थे ,
नभ को हम छूले, हमारे सपने थे ।
आपस में हम, कितना लड़ते थे ,
थोड़ी देर में ही , गले सब मिलते थे ।
बाबा से छिपकर, बागों में जाते थे,
चट से पेड़ों में, चढ़ जाते थे ।
बागों के वो आम, कितने मीठे थे ,
माली काका के डंडे, कितने तीखे थे ।
गुड्डे- गुड़िया की शादी होती थी ,
शादी की दावतें भी, खूब उड़ती थी ।
बच्चों की बारात भी, खूब सजती थी,
गुड़िया की सहेली भी, खूब सिसकती थी ।
सब मिलकर ,स्कूल जाते थे ,
खूब धमाचौकड़ी, मचाते थे ।
रोटी के साथ ,अचार सब खाते थे ,
सबको हम कितना ,चिडा़ते थे ।
लकड़ी की पाटी, खूब चमकती थी,
लकड़ी की कलम भी, रोज बनती थी।
सुन्दर- सुन्दर शब्द, रोज बनाते थे,
मास्टर जी को पढ़कर ,भी सुनाते थे ।
खेतों में मिलकर, दौड़ लगाते थे ,
कभी गिरते, फिर उठ जाते थे ।
सब मिलकर ,तैरने जाते थे,
गंगा में ऊॅची, छलांग लगाते थे ।
कागज की नाँव , हम बनाते थे,
बारिश के पानी में, उसे तैराते थे।
पानी में छप- छप करते, भीग कर जाते थे,
घर में जाकर, माँ की डाँट खाते थे ।
आंगन में नीम कितना, सजता था ,
उसकी छाया में, पूरा घर हॅसता था।
दादा के संग, मैं सोया करता था,
ढ़ेरों बातें मैं उनसे करता रहता था।
माँ के आॅचल की, खुश्बू अच्छी लगती थी,
माँ के चूल्हे की, रोटी मीठी लगती थी।
बाबा संग रोज, बाजार मैं जाता था,
जलेबी, रसगुल्ले, चाव से खाता था ।
माँ रोटी पर, मक्खन देती थी,
मिश्री भी साथ में ,होती थी ।
माँ प्यार से गोद में, बैठाती थी,
हौले- हौले बालों को ,सहलाती थी ।
नीली- हरी ,पतंगो को उड़ाते थे,
कितने पेंच, बचपन में लड़ाते थे।
कटने पर पीछे , दौड़ते जाते थे ,
बड़े भैया की, डाँट भी हम खाते थे ।
पतंगो से रंग- बिरंगे, हमारे सपने थे,
ना था कोई पराया, सब अपने थे।
बचपन के वो दिन ,कितने अच्छे थे,
वो बेफिक्री के दिन, कितने अच्छे थे ।
ये स्वरचित व मौलिक रचना है।
राजेश्वरी जोशी,
उत्तराखंड