कविताअतुकांत कविता
एक टुकड़ा जिंदगी
बैठे हैं बड़े घरों वाले आलीशान कमरों में, *जनवरी की ठंड में, ओढ़े गर्म कम्बल , चल रहा गर्म हवा देता हीटर, कंपकंपाते हाथों में चाय का प्याला है। उस पर भी लगती ठंडी उनको, कोई करने को काम ना रजाई से बाहर हाथ निकाला है। पहन ब्रांडेड जैकेट और जींस मोटी-मोटी उनी मोजो से खुद को ढक डाला है। इश्वर का कहर तो देखो पड़ा उन गरीबों पर सड़क है घर जिनका आसमान की छत है , ना जाने कैसे सहते वो ये ठिठुरती जनवरी की सर्दी, ना वो कांपे ठंड और बारिश मे, ना धूप उनको जलाती है, लगे रहते करने को मेहनत लिए आस एक टुकड़ा रोटी के लिए।
कहीं अगर भूले से भी मिल जाए एक टुकड़ा रोटी का एक उन्हें बस खाकर उसी को जी भर के वो जी लेते हैं, ना भी मिले तो चुपके से अपने आंसू वो पी लेते हैं। क्या सोचा हमने कभी वो भी तो जीवन जीने के अधिकारी हैं, इश्वर ने बक्शा उनको भी जीवन दान, तो क्यों फिर हम में ही सिर्फ पैसे की मारामारी है। मेहनत उनसे हम कराते हैं, मेहनताना ना पूरा दे पाते हैं, कभी हम खुद रखते, कभी बिचोले आधी कमीशन खाते हैं। ले दे कर जो बचते चार पैसे उन्हें उन्हीं से वो अपना गुज़ारा चलाते हैं, मगर फिर भी ना वो घबराते हैं, बस एक टुकड़ा रोटी की आस लगाते हैं ।
मौलिक एवं स्वरचित
प्रेम बजाज, जगाधरी ( यमुनानगर)