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ठिठुरन - Gaurav Shukla (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

ठिठुरन

  • 179
  • 3 Min Read

ठिठुर गयी है रातें,
सबकी सोच ठिठुर रही है,
एक एक कर ज़िन्दगी की,
देखो डोर बिखर रही है,

टूट रहा साँसों से रिश्ता,
ज़िस्मों का हौले हौले,
सर्द भरी हर शाम में,
देखो ओस बिखर रही है,

आहत करती इन पवनों से पूछो,
तुम दर्द कहाँ से लाते हो,
लाचारी का हर एक कतरा,
अफ़सोस बिखर रही है,

कल कल करती नदियों से पूछो,
जलधार कहाँ से लाते हो,
दिन रात पसीने की बूंदे,
पुरज़ोर बिखर रही हैं।

दीवार पर लगी घड़ी से पूछो,
वक़्त कहा से लाते हो,
उम्र फ़क़त यादों का डेरा,
हर रोज सिमट रही है,

सर्द बढ़ी,
बेमौसम सब पर,
हर ओर जुगत रही है।
ठिठुर गयी है रातें,
सबकी सोच ठिठुर रही है,


गौरव शुक्ला'अतुल'

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

बहुत सुंदर

Gaurav Shukla3 years ago

शुक्रिया मैंम

प्रपोजल
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माँ
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