कविताअतुकांत कविता
स्त्री का अस्तित्व
ताउम्र निभाते रिश्तेदारियां,
अब थक गई हूं मैं,
मानों ऐसा लगता है,
अपना अस्तित्व भी,
खोते जा रही हूं मैं।
सबको खुश रखते रखते,
अपनी खुशी भूल,
जाती हूं मैं,
सबकी जरूरतें पूरी करते करते,
अपनी भी जरूरत,
भूल जाती हूं मैं।
धुंधली हो गई यादें,
भूल गई हंसी ठहाके,
घर के कोने कोने को,
यादगार बनाती हूं मैं,
पर अपना अस्तित्व,
भूल जाती हूं मैं।
मां का चश्मा, पापा की छड़ी,
पति का जेब, बच्चों के नखरे,
सब की जरूरतों को,
पूरी करते करते,
अपनी कमर दर्द भी ,
भूल जाती हूं मैं।
सबके नाश्ते,
सबकी फरमाइशें,
सबकी जिम्मेदारियां,
उठाते उठाते अपनी,
एक प्याली चाय भी
भूल जाती हूं मैं।
बस इतनी ही दुनियां में,
सिमट गई हूं मैं,
अपने अस्तित्व की खोज में,
किसी किनारे खड़ी हूं मैं,
काश! कोई ये तो समझे,
एक जिन्दा प्राणी हूं मैं।
स्वरचित मौलिक रचना
अनुपमा (अनु)
भोजपुर, बिहार
उपयुक्त रचना स्वरचित ,मौलिक और अप्रकाशित हैऔर अगर इसके संबंध में किसी भी प्रकार का विवाद उत्पन्न होता है तो इसके लिए मैं स्वयं उत्तरदाई रहूंगी।