कवितालयबद्ध कविता
ऐसा एक ख़्याल है
कि कभी रोज जब ये सूरज नहीं दिखेगा
बादलों के सहारे जब उजा़ला बिखरेगा
मन में इश्रत की चाह भी फीकी सी होगी
तब राहें तो दिखेंगी
जहाँ जाना है वो मंजिलें भी होंगी
ईर्द गिर्द की हलचल भी नज़र में होंगी
कौन क्या कहता है, ये ख़बर भी होगी।
लेकिन मन विहवल है
आज मन जरा जरा खींचा खींचा सा है
रास्ते तो वही हैं
लेकिन सफर धुंधला धुंधला सा है
यहां से अब मंज़िल
और कितने दूर है, मालूम नहीं
आसमान में बिखरे बादल
साथ साथ और कितने दूर है ,मालूम नहीं
ख्याल यह भी है कि जिस जा रहे
उस और कोई रोशनी हो,
खुला आसमान हो, बेहतर जिंदगी हो
पर लगता है,
कि असलियत इससे कहीं दूर है
क्योंकि मंजिलें, जिन्हें कभी नहीं देखा
ऐसी ख्वाइशें बादलों के पीछे
फलक और उफ़्क के दरमियान, बहुत दूर है
जीने केवल सोचा तो जा सकता है
लेकिन कभी देखा नहीं और
ना ही कभी छुआ जा सकता है
ऐसा सफर, एक ख्याल यह भी है।