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खत जो भेजा नहीं - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

खत जो भेजा नहीं

  • 111
  • 6 Min Read

उसे गये पूरे चार दिन हो गए हैं।जाते हुए एक बार भी न ठिठका, न पीछे मुड कर देखा।मैने भी रोकने,टोकने, मनाने की कोशिश नहीं की।मै जानती थी कितना हठी स्वभाव है उसका ! सोचा था, गुस्सा ठंडा होने पर लौट आएगा।अब आशा क्षीण हो गई है।
पत्र लिखा उस निष्ठुर को, उलाहना देना चाहती थी,मगर दिया नहीं ।ख़त भेजा ही नहीं ।आज भी मेज की दराज में महफूज़ है।रोज खोलती हूं, फिर पढ़ कर रख देती हूं।
ख़त जो भेजा नहीं..
प्रिय(शायद ऐसा लिखने का अधिकार खो चुकी हूं)
तुम घर कब लौटोगे?
क्या...
मेरे प्रेम की कोई कीमत नहीं ?
क्या...
इन गलियों को तुम भूल गए?
जिनमें बसती है ,मेरी ,तुम्हारी आंखमिचौली !
इन्हें छोड़ कर तुम जी पाओगे ?
नहीं...
कभी नहीं तुमसे पूछूंगी
तुम्हारी बेरुखी का सबब
अब....
घर लौट आओ
अब नहीं रोकूंगी ,न टोकूंगी
जानते हो....
दाना नहीं चुगता हमारा हीरामन
और....
तुम्हारे पढ़ने की जगह
तुम्हारी बाट जोह रही है ।
देखो....
तुम्हारे आने का इंतज़ार करती
पथरा रही हैं ये दो आंखें
सखी कहती है
बाट जोहना बंद कर दे
जी तू भी अपनी ज़िंदगी
इत्मीनान से ..
कैसे....
जब जीने की चाहत हो ही नहीं
जीने का मकसद हो ही नहीं
.. ..तो ?
गीता परिहार
अयोध्या (फ़ैजाबाद)

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

मर्मस्पर्शी..!

Gita Parihar3 years ago

धन्यवाद

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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