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कुछ एहसास हैं भिन्न - शिवम राव मणि (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

कुछ एहसास हैं भिन्न

  • 201
  • 7 Min Read

पता है….
बीती रात एक सुकून का एहसास हुआ
जब खुद को रजाई के भीतर समेटे हुए
बचना चाहा एक ठिठुरती ठंड से
लगा कि महफूज़ हूँ इन दो चादरों में
काफी है ये ओढ़ते कम्बल
और इनमें सिमटा मैं..
समझा कि ये दिवारें मेरे सिपाही बन
रेत-ईंट की छत
और तन पर चढ़ा हर एक धागा
जो एक दुसरे में बंध ढकता मुझे
मददगार हैं मेरी कंपकपी के
मगर ओढ़न से भी दखल
अगर एक पाँव जो छूता नर्म शीत को
एहसास होता कुछ
अपने से भिन्न…..|

काँपता तो है शरीर
अगर तन होता बिस्तर से बाहर
कठुवा जाता हर लहर से छूता देह
और बेला होती
निशा में विरल हवा का आगोश
जो ढक जाती निरन्तर गिरी ओस में
या कहीं बर्फ-सी जमी लौह ज़ंजीर को
छू जाती गर्म हाथ की हथेली
या नीरस सेतु प्रवाह में डुब जाती अँचुली
तो फिर से वही एहसास होता
कुछ अपने से भिन्न….|

सोचता अगर हाय लग जाये
ये दीवारें, छत और रेशा-रेशा
ठाठ से भरी शौकत को हाय लग जाये
क्या होती है शक्ल
समझने में, विनत एक जीवन की
आप भी समझिए
जब मुमकिन न हों ये दो चादर
बहुत हो ये सहारा अम्बर
ठिठुरती है देह इन बेजार कपड़ो में
जब काफी नहीं होते है ये ओढ़ते कम्बल
तो काँप जाती है मन की निवृत्ति
और सामने एक ठंड बेहोशी-सी गिरती है
सहारे अम्बर से गिरती है
दिवारें-छत नहीं इतने मज़बूत
कि रोक सकें ठंड का हर वार
वो वार करते तेज झोंको से
शीत लहर और जकड़ती हवाओं से
पर नहीं इतनी क्षमता
और न ही इतने संसाधन
कि सह सकें, लड़ सकें
हर पीड़न से उबर सकें
मगर स्वीकारता है मन, कठोर होती है जंग
कभी हारते भी है तो महज़ एक फर्क…
वो आप भी समझिए,
कुछ एहसास हैं भिन्न
विनत एक जीवन के

शिवम राव मणि©

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Sudhir Kumar

Sudhir Kumar 3 years ago

वाह वाह, ठंडक में लफ़्जों की ऐसी गर्मजोशी लाजवाब

शिवम राव मणि3 years ago

धन्यवाद सर

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