कविताअतुकांत कविता
गुड़िया की चाह
चाह मुझे फिर बन जाऊं मैं
सात साल की नन्हीं गुड़िया
घर आँगन में फिरू नाचती
और पैरों में पायल छनकाऊं
छोटा लाल बस्ता बगल दबाए
सखियों संग पढने को जाऊँ
खूब पहाड़े याद करके सुनाऊं
बाल गीत भी सारे गुनगुनाउँ
सावन में झूला पीपल पे डालूं
संजा गीत मौज में गा सुनाऊं
राखी भैया के हाथ में बाँधूँ मैं
चूनर गुलाबी ओढ़कर इतराऊं
मम्मा जैसी मीठी लोरी गाकर
छोटे भैया को प्यार से सुलाऊं
पापा जब आते हैं ऑफिस से
कड़क गरम चाय पिलाऊँ मैं
गुड्डा गुड्डी खेलते सीख जाऊँ
गोल रोटी माँ के जैसी बनाना
घर बाहर के सब काम करके
राजा बेटी बनके तारीफ़ पाऊँ
सरला मेहता