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क्योंकि लड़के रोते नहीं - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकप्रेरणादायकअन्य

क्योंकि लड़के रोते नहीं

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क्योंकि लड़के रोते नहीं 
 निलांबरीजी,' लैंगिक भेदभाव और उसका समाज पर प्रभाव' पर श्रोताओं को संबोधित कर रही थीं।  एसकेजी कॉन्फ्रेंस हॉल खचाखच भरा था। गणमान्य अतिथि, बुद्धिजीवी, पत्रकार, शैक्षिक संस्थाओं के प्रमुख और  कुछ बच्चे भी हिस्सा ले रहे थे।
वह कह रही थीं,' विश्व के अनेक देशों में पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना है। अक्सर जहां ऐसी संरचना होती है,वहां पुरुष का वर्चस्व होना स्वाभाविक है। भारत  पितृसत्तात्मक समाज है।यहां महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। लैंगिक भेदभाव बच्चों के साथ उनके बचपन से ही शुरू हो जाता है।लड़कियों को कैसे रहना चाहिए और लड़कों को कैसे रहना है, लड़कियों में क्या गुण होने चाहिए और लड़कों में क्या गुण होने चाहिए ,यही भेदभाव आगे चलकर समाज में असंतुलन पैदा करते हैं।'
ध्वनि सोच रही थी ,यह भेदभाव कब, क्यों और कैसे शुरू हुआ, तभी नीलांबरी जी ने एक केस स्टडी के बारे में बताना शुरू किया।
"दृर्शिल एक सामान्य भोला - भाला लड़का था। बचपन में बहन को गुड़िया से खेलते देखता और कभी खुद उसके खेल में शरीक हो जाता तो पिता तुरंत कहते, लड़की है क्या?तेरे लिए लाया हूं न गन, वीडियो गेम, जा साइकिल चला, लड़कियों वाले खेल मत खेला कर।साइकिल चलाना सीखते हुए एक दिन गिर गया ,घुटने छिल गए रोते हुए घर आया ,तो फिर वही सुनने को मिला,क्या लड़कियों की तरह रोते हो।"बालमन ने पूछा,मैं रोऊं भी नहीं?,"
नहीं,क्योंकि तुम लड़के हो, ..लड़के रोते नहीं।
सच तो यह है कि पुरुषों में भी संवेदना ,पीड़ा ,ईर्ष्या ,त्याग और स्नेह के भाव  होते हैं।अंतर यह है कि पुरुषों को अपनी भावनाएं दबाने की सीख दी जाती है।
उन पर दबाव रहता है कि उनमें मर्दानगी ,प्रतिभा और शक्ति कूट-कूट कर होनी चाहिए। हर समय सबके लिए  ऐसे ही बने रहना अत्यंत घातक हो सकता है।मेरा मानना है कि यह एक तरह का मानसिक शोषण है।हमे अगर एक स्वस्थ समाज बनाना है तो ऐसी विसंगतियां दूर करनी होंगी।"नीलांबरी जी के बैठने के बाद संचालक महोदय ने उपस्थित श्रोताओं को आमन्त्रित किया कि वे चाहें तो वक्ताओं से सवाल पूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं।
मैडम डीना उठीं, उन्होंने कहा,"मेरे स्कूल का एक होनहार लड़का, जब किसी कॉरपोरेट जॉब में सेलेक्ट हो गया और शहर छोड़ कर मुंबई जा रहा था तो मुझसे मिलने आया। उसने कहा, वह मुंबई जा रहा है। पहले कभी देखा नहीं, बस सुना है, महानगर है, माया नगरी है। वह किसी को जानता नहीं, वहां वह अकेले रहेगा। उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा। उसके दोस्त, उसके माता-पिता, उसके भाई -बंधु सब यहीं हैं, मगर उसे वहां एडजस्ट होना पड़ेगा, क्योंकि अब वह बड़ा हो गया है। उसे जिम्मेदारी उठानी होगी ,भावुकता छोड़नी होगी, भावुकता से पेट नहीं भरता। आंखें भी नम नहीं कर सकता। मां को छोड़ते हुए, मां को कस के गले लगा कर रो भी नहीं सकता क्यों? क्योंकि लड़के रोते नहीं।
जड से उखड़ने   का ग़म किसे नहीं होता ? क्यों लड़के रो नहीं सकते ? "पूछते हुए उनकी आंखें भर आईं।
अब एक कक्षा बारह का छात्र उठा,"मैम,जिन्होंने ये मान्यताएं बनाईं ,उनसे पूछना चाहता हूं,क्या लड़के इंसान नहीं,उन्हें क्या ग़म नहीं होता ? ऱोना चाहें तो लोग क्यों कहते हैं क्या लड़की है, जो रोता है ? जज़्बात का समंदर हिलोरे मारता हो, पर  लड़के रोते नहीं तो, मतलब नहीं रोना है।
उन्हें भी घर की,मां बाप,दोस्तों की याद आती है जब वे शहर छोड़कर नौकरी के लिए बाहर निकलते हैं।"
नीलांबरी जी ने कहा," अब स्थितियां सुधर रही हैं।मगर कहीं -कहीं लड़कों में कोमल भावनाएं होना,उसके मर्दोचित गुणों पर सवालिया निशान होता है।उनसे उम्मीद रहती है वह गुड़ियों से न खेलेे,गुलाबी रंग न पहने,वह मर्द हैं उन्हें दर्द नहीं होता।
मर्दानगी साबित करने के लिए पत्नी को अंगूठे के नीचे दबा कर रखें।दुख में भी आंसू न बहाएं। खुशी का  इज़हार ठहाकों के साथ कर सकते हैं , पर  बहन की विदाई पर बुक्का फाड़ कर रो नहीं सकते,क्यों? लड़का बड़ा हो गया हो, मां की बातें मानता हो, तो  वह 'मामास बेबी' है।उसमें भी कोमल भावनाएं पनपने  दो अन्यथा, समाज कैसे पुरुषों का होगा ? कठोर, भावशून्य, अंहकारी,जिनसे करूणा, कोमलता कोसों दूर होगी। "
विदिशा,जिसके बड़े भैया कुछ दिन पहले ही विदेश गए हैं ,बोली," मेरे घर में तो कभी भेद- भाव नहीं हुआ,
एक अनजान देश ,अनजान जगह,अनजाने लोगों के बीच नितांत अकेलेपन को झेलना पड़ेगा ऐसी खुलकर चर्चा हुई कि भैया अकेले कैसे मैनेज करेंगे।बस पापा ने इतना ही कहा जैसा तुम चाहो वहीं करो।"हाल में तालियां बज उठीं।
तभी नीलाभ जी ने कहा,"कभी सिर पर हाथ रखकर लड़कों का भी हाले दर्द जानने की कोशिश करें।जो घर से दूर रहते हैं।कई रातें बिना खाए गुजार देते हैं। मां की,पिता की झिड़कियां  याद करते हैं।वे हमेशा उसे लापरवाह कहते थे। ज़िम्मेदारी कितना कुछ छीन लेती है।हमे रोने का हक दे दो। अपनी मानसिक्ता  हम पर मत थोपो।"
एसा प्रतीत हुआ आज का समारोह सार्थक रहा।

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

बहुत स्वस्थ वाद विवाद.. लड़कों में भी सामान्य कोमल भावनाएं होती हैं.

दादी की परी
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