कहानीसंस्मरण
*यादों के झरोखे से*
"वो बिगड़ैल लड़का"
सन 1960 की जनवरी,
मेरे बगल वाले घर में मुन्नू (बदल हुआ नाम) नाम का एक लड़का रहता था ।वह मुझसे चार ,पांच साल बड़ा होगा।वह मोहल्ले का सबसे शरारती लड़का था।वैसे उसमें मारपीट करने के अतिरिक्त और कोई ऐब नहीं था।शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब उसका किसी से झगड़ा न होता हो।उसके घर वाले उसकी शिकायतें सुनते सुनते थक गये थे।
उस जमाने में कुछ स्कूल ऐसे थे जो बहुत बदमाश लड़कों को सुधारने के लिए अपने वहां जंजीर से बांध कर रखते थे और जंजीर में बंधे बंधे ही वह लड़के क्लास में पढ़ते भी थे। हालांकि ऐसे दो चार केस ही स्कूल में साल में आते थे।
ऐसे ही एक स्कूल में मुन्नू के घरवालों ने उससे तंग आकर मुन्नू को भर्ती करवा दिया।
स्कूल पास में ही था।पूरे मोहल्ले में ये खबर हवा की तेजी से फैल गई।
कुछ लड़के स्कूल की खिड़की से मुन्नू को झांक कर देखने पहुँच गये।एक लड़का उसको देख कर अपनी हँसी नही रोक पाया।मुन्नू ने अपने अंदाज में उसको बहुत गाली दीं और यह धमकी भी दी "साले बाहर आने पर...
मेरे और मुन्नू के परिवार के बहुत अच्छे सम्बन्ध थे।मुन्नू मेरे बड़े भाई का मित्र भी था।जिस कारण वह मेरे घर भी आता था।मुन्नू की दादागिरी से लड़कों के अलावा कुछ बड़े भी डरते थे।मुन्नू को देखने मैं भी पहुँच गया।मैं उस समय बारह साल का था। मेरा आना मुन्नू को अच्छा नहीं लगा।वह नहीं चाहता था कि मेरे मन में उसकी बुरी छवि बने।मुन्नू ने मुझसे बड़े अपने पन से कहा" गोपाल तुम यहाँ मत आया करो।"
गणेश चौथ का अगला दिन था।मेरे पिता जी ने मुझे बुलाया और घर मे बनी काले तिल को कूट, पीस कर बनाई बर्फी के चार पीस कागज में लपेट कर कपड़े की पोटली में बांधकर देते हुये कहा "यह मुन्नू को दे आओ पर ध्यान रहे किसी को पता न चले।"
मेरे लिये यह मजेदार काम था और बहुत बड़ा रहस्य भरा भी।क्योंकि एक जासूस की तरह इसे अंजाम देना था।
मैंने इस अभियान को बड़ी सन्जीदगी से पूरा किया।
मैंने इधर उधर देख कर कि कहीं कोई मुझे देख तो नहीं रहा है,वह कपड़े की पोटली मुन्नू की तरफ फेंक दी।
मुन्नू उसे खोला और देख कर समझ गया ,यह मेरी मां या बाबूजी ने भेजी होगी।इस समय की उसकी प्रसन्नता का बर्णन शब्दों में नहीं लिखा जा सकता।उसने हाथ जोड़ कर मेरे पिता जी के लिये अपनी श्रद्धा ब्यक्त की।
मिठाई की तो बात छोड़िये जाहिर है विगत दस दिनो से उसने सादा खाने के अतिरिक्त कुछ नहीं खाया होगा। जबकि वह सम्पन्न परिवार से था।
आठ दस दिन बाद वह कैद से मुक्त हो गया।उसने अपनी धमकी के अनुसार सबसे पहले उस लड़के को उसके घर में ही जाकर मारा, जो उसको देख कर हँसा था।
बाकी लड़के जो उसको देखने गये थे महीनों तक छिपे छिपे घूमते रहे।
मेरे घर वह शर्म के कारण कई महीने नहीं आया।
मुझे अच्छी तरह याद है इस तरह से इन स्कूलों में बंदी बना कर रखा गया एक भी लड़का कभी सुधरा नहीं।बल्कि एक दो तो क्रिमनल ही बन गये।मुन्नू पर भी इसका बिपरीत प्रभाव पड़ा।वह पहले से ज्यादा झगड़ालू हो गया।
समय गुजरता रहा। शायद परिवारिक माहौल की बजह से मुन्नू भी समय के साथ सुधरता चला गया।मुन्नू ने किसी मिल में सुपर वाइजर की नौकरी कर ली।शादी हो गई।दो लड़के भी हो गये।
फिर सन 1993 में मैंने वह मोहल्ला छोड़ दिया।उसके बाद दो चार साल में कभी मुन्नू से मिलना होता। बाद में यह भी बहुत कम हो गया। दो वर्ष पहले तो मैं मुन्नू से करीब दस वर्ष बाद एक समारोह में मिला होऊंगा।मुन्नू भईया काफी कमजोर हो गये थे।उनको घुटनो की तकलीफ थी। और भी कई बीमारियां बता रहे थे।हम लोग बहुत देर तक पुरानी यादों में खोये रहे।मुन्नू ने कुछ मुस्कराते हुये कहा" गोपाल तुम्हे याद है न जब तुम मेरे लिये काले तिल की बर्फी लाये थे, तुम्हारे घर की वह बर्फी मुझे बहुत अच्छी लगती है।"(उसने उस समय के अपने और हालातों का जिक्र नहीं किया क्योकि कुछ और लोग भी पास में थे)
उसके बाद वह बहुत गम्भीर हो गया और मेरे पिता जी को याद करते हुये उसका गला रुंध गया।उसने इतना ही कहा "चाचा जी ऐसा प्यार करने वाला आदमी मैंने अपनी जिंदगी में दूसरा नहीं देखा।"
फिर रूमाल से अपने आंसू पोछते हुये कुछ नार्मल होने के बाद पूछा "गोपाल वैसी बर्फी क्या अभी बनती है तुम्हारे घर?"
मैंने कहा हाँ, आइये अबकी गणेश चौथ पर मिलेगी आपको। उन्होंने कहा "जरूर आऊंगा।"
पर अब वह महायात्रा को जा चुके हैं।बस उनका वह वायदा याद रह गया है "जरूर आऊंगा।"
यायावर गोपाल खन्ना