कवितानज़्म
जहां तक उम्मीद है,
मुझे वहां तक जाना है।
रोजमर्रा की आपाधापी से
बोझिल हो चुकी,
मन की संवेदना भी
जहां गुम हो जाए,
उस नितांत गुप्त अंधेरे में
एक बुझी आस का दिया जला कर
सामने कहीं दूर,
दिप्त होती खुली किताब की ओर
आड़े टेढ़े, अकल्पनीय
जीवन अंश पर चलते हुए
उस इंकलाब तक जाना है,
जिसकी तलाश में,
हर सुख-दुख के लम्हें
मन की अथाह सुरंग में कहीं खो हो गए हैं।
वहां पहुंचकर
उसे छूकर
उसके एक एक पन्ने पलट कर
कुछ भूली बिसरी यादों को
फिर याद करना है
और कुछ छुट रहे लम्हों के दरमियान
जज्बातों की स्याही से
अपने हाल को बयां करना है।
मगर यह इतना भी आसान नहीं;
क्योंकि उस नितांत अंधेरे में
भले ही वह किताब
और उसे ढूंढ रही एक आस
मन की अथाह सुरंग को
रोशन कर रहे हो,
लेकिन सामने,
आड़े टेढ़े,
अज़ीज़ बे- अज़ीज़
एहसासों से भरे हुए
जीवन अंश पर चलना
किसी समर में उतरने जैसा होगा;
जिसका अनुभव,
चाहें अच्छा हो या बुरा,
बस उसे स्वीकारते हुए
उस खुली किताब की ओर
चलते जाना है, चलते जाना है
जहां तक उम्मीद है,
मुझे वहां तक जाना है।
शिवम राव मणि