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जिन्दगी की डायरी के पन्ने - Kamlesh Vajpeyi (Sahitya Arpan)

कहानीसंस्मरण

जिन्दगी की डायरी के पन्ने

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जिन्दगी की डायरी के पन्ने

पन्ने का नाम आते ही, डायरी के पन्नों की यादें ताज़ा हो जाती हैं.
कभी निराशा और अवसाद के क्षणों में, कभी कुछ अनुकूल अवसरों पर. डायरी के पन्ने ऐसे साथी होते हैं जो कुछ पाने की आशा नहीं रखते, निस्वार्थ भाव से हमारे सच्चे साथी होते हैं.. हमेशा ही.
कम उम्र में, मन के भाव बहुत तीव्र होते हैं. छोटी-बड़ी सभी घटनायें मन, मस्तिष्क को बहुत प्रभावित करती हैं
मैं अपने कालेज के दिनों में डायरी लिखता था .   बहुत नियमित तो नहीं था , किन्तु जब भी समय मिलता था या मन पर किसी घटना का तीक्ष्ण प्रभाव होता था तो कोशिश करता था कि उसे लिखूं.. उससे अक्सर मन कुछ हल्का सा लगता था. कभी खुद को उपेक्षित या बहुत अकेला महसूस किया तब भी लिख कर कुछ हल्का लगता था. प्रारम्भ में हिन्दी में लिखता था फिर बाद में अक्सर अंग्रेजी में लिखने लगा.

मुझे लगता था कि अगर किसी हाथ पड़ भी गई तो अंग्रेजी में होने पर एकदम से किसी का ध्यान नहीं जाएगा. पढ़ेगा नहीं. लिखने में शब्दों में कुछ सावधानी भी रखता था.
उस समय ट्रांजिस्टर ही खाली समय का साथी होता था, या किताबें.. कभी-कभी पिक्चर., दोस्तों का साथ.मैं अकेला माता-पिता के साथ रहता था.

हाईस्कूल के बाद, मैंने अंग्रेजी माध्यम लिया था, कालेज में विकल्प था. वैसे भी हमारे विद्यालय के सभी अध्यापक बहुत अच्छे थे. और सभी विषय बहुत अच्छी तरह से पढ़ाते थे.

बचपन में गर्मी की छुट्टियां होते ही, हम लोग अपने ग्रह नगर हरदोई जाते थे. वहां बाबा, दादी, चाचा जी, उनका परिवार रहता था.हमारी बुआ जी और उनका बेटा दिल्ली से आ जाते थे. बड़ा सा घर , धर्मशाला रोड पर, लम्बे बरामदे,2 कुएं, लान, खूब बड़ा आंगन..! हम लोगों के गांव से भी बहुत से लोग आते - जाते रहते थे. छोटा शहर.. बाग, बगीचे, उन्मुक्त वातावरण.. दोपहर में बड़े लोग ताश, पचीसी (चौपड़) आदि खेलते. हम लोग भी सुबह, शाम खूब खेलते. छुट्टियां कैसे बीतती पता ही नहीं चलता था.

जुलाई के पहले सप्ताह में हमें वापस आना होता था. मन बहुत उदास हो जाता था. स्टेशन पर बहुत से लोग छोड़ने आते.मन बोझिल सा हो जाता था.
कानपुर वापस आने पर बिल्कुल मन नहीं लगता था, घर छोटा लगता था, पानी कड़ुआ. ..!
धीरे धीरे जाना कम होता गया. पढ़ाई बढ़ने लगी.

बाद में माँ की तबियत खराब रहने लगी.
धीरे धीरे वे बिस्तर के आसपास ही सीमित हो गयीं. करीब 8-10 वर्ष.
घर का वातावरण भी बोझिल रहने लगा.
मन पर बोझ रहता.।
एम ए प्रीवियस में ही, 19 - 20 वर्ष की आयु में मेरी  बैंक में नियुक्ति भी हो गई. क्लास सुबह होते थे, पोस्टिंग लोकल थी, मैं अक्सर क्लास से ही बैंक चला जाता था.
लोगों ने कहा साथ में कम्पटीशन की तैयारी करते रहना.
दिल्ली से भाई साहब ने फार्म भी भेज दिये. लेकिन सम्भव नहीं हो पाया. मन निराश सा रहने लगा.
मां की तबीयत अधिकतर खराब ही रहने लगी. हम लोगों ने खाना आदि बनाना भी धीरे-धीरे कुछ कुछ सीख लिया, लेकिन पढ़ाई प्रभावित होने लगी.
मन भारी रहने लगा, किसी दूसरे शहर जाना भी बन्द सा हो गया.
तब दिनचर्या सीमित सी हो गयी. किताबें पढ़ता और समय मिलने पर डायरी पर लिखता. ट्रांजिस्टर सुनना, उसी से समय का अन्दाज़ होता था. किचन में भी साथ रहता था.

धीरे धीरे डायरी जिन्दगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा सी बन गई.
बाद में व्यस्त होने पर लम्बे गैप भी हो जाते थे.
लेकिन मन बहुत सामान्य नहीं रहता था.

बाद में भाई साहब ट्रांसफर हो कर कुछ वर्ष साथ रहे.
तब कुछ सामान्यता रही. मां के जीवनकाल तक हम लोग साथ साथ ही थे.
बाद में आफिस में भी जिम्मेदारियां बढ़ती रहीं. ट्रांसफर भी हुए.
अब छुट्टी में ही मैग्ज़ीन, पुस्तक आदि पढ़ने का समय मिलता था.जो धीरे धीरे बन्द सा हो गया.
डायरी अनियमित रहती थी, लेकिन कभी-कभी लिखता था.
अब अक्सर छुट्टियों में भी आफिस जाने का क्रम शुरू हो गया. शहर की पोस्टिंग होने पर घर लौटने का समय भी बढ़ जाता.
ऐसे ही जिन्दगी साथ साथ चलती रही. किन्तु डायरी का साथ किसी न किसी रूप में रहा.

स्वरचित
कमलेश चन्द्र वाजपेयी
ग्रेटर नोएडा

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