कहानीसंस्मरण
गाँव
जहाँ आज भी बिजली के बजाय दीया जलाते हैं,
जहाँ ड्रॉइंग रूम,वेटिंग रूम और बेडरूम नहीं ,दुआर,चौपाल और कोठरी से जाना जाता हो।
हां वही गाँव जहाँ शाम को ऑफिस से कोई कंधे पर बैग टांगकर नहीं,शाम को भैंसों व गायों से शुद्ध देसी दूध को बाल्टी में लेकर लौटते हों।
हां वही गाँव जिसके देसी होने से शहर का शहरीपना भी जलता है।
तभी तो इन भोले भाले गाँव वालों को शहर का लालच देकर ढकेल रहा है,शहरीपना के इस अंधे कुएं में...
उसी कुएँ कि ओर आज मैं भी जा रहा था..लेकिन ये याद तक़रीबन आज से लगभग 18 साल पहले कि है जब मेरी उम्र ...कुछ 4 या 5 साल के आस पास थी,जब मोबाइल जैसे खिलौने से गाँव का दूर दूर से वही नाता था जो अभी दिल्ली का शुद्ध ऑक्सिजन से है।
तब रातों में बिजली नहीं आया करती थी,और किसी तरह आ भी जाती थी तो पंखे का चल पाना उतना ही दुर्लभ था जितनी की मेरी दादी का,
हां मेरी दादी...उम्र लगभग 70 वर्ष,शरीर से 80 वर्ष से भी ज्यादा और आवाज से किसी 30 कि उम्र से कतई कम न थी।
हम लोग तो अमरीशपुरी बुलाते थे अपनी दादी को...
हर शाम को जैसे हर प्राणी अपनी मां की गोद में सो जाना चाहता था वैसे ही मैं भी अपनी दादी की गोद में सोने आ जाता था....!
क्या हुआ ?
अब आप मेरी मां के बारे में सोच रहे होंगे तो ...मैं बस इतना कहूँगा वो हमारे साथ अब नहीं है।
तो...अब मेरी माँ...और मेरी दादी...दोनों ही मेरी दादी ही हैं।
तो मैं कहाँ था !!!
हाँ...उनकी गोद में सोने का मतलब था एक नई कहानी को सुनना..कहानियों से जितना प्रेम मुझको था शायद ही और किसी को था।
मुझे उम्र ने नहीं मुझे कहानियों ने बड़ा किया है।मुझे दादी ने नहीं उनकी कहानियों ने पाला है।
लेकिन जैसे जैसे दादी की उम्र बढ़ती गयी,उनकी यादों से वैसे ही थोड़ी नाराज़गी सी भी बढ़ती गयी और धीरे धीरे दादी ने अपनी कहानियों को कहीं सँजो कर रख दिया,और भूल गयी अपनी यादों को,अपनी विरासत को,भूल गयी अपने आपको....
भूल गयी रिश्तों की जमापूंजी को...
कहीं रखकर ...दूर किसी कोने में...इतना भुलक्कड़ कि एक दिन अपने शरीर को भी भूल गयी......और चली गयी...हम लोगों को छोड़कर...
✍️ गौरव शुक्ला'अतुल'©