कवितागजल
ग़ज़ल
एक प्रयास
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लिहाफ़ में जब मुँह छुपाने लगी
लाली उषा की मुझे लुभाने लगी
साँसों में घुल गई चंदन
सी खुशबू
तेरी मौजूदगी याराँ मुझे
भाने लगी
ज़ख़्म जो दिए तूने प्रिये
ताज़ा है अभी
सब्र का मलहम अब मैं
लगाने लगी
तेरे दर की दहलीज़ पे
बैठी रहती
अश्क़ तेरी याद में प्रिय
बहाने लगी
बाद मुद्दत के मुलाक़ात
हुई उनसे
नज़रें गैरो की माफ़िक
चुराने लगी
चाँद चढ़ते ही ख़्वाब तेरे
आ जाते हैं
नींद में भी क्यूँ तू मुझसे
कतराने लगी
सरला मेहता