कविताअतुकांत कविता
बदलती दुनियाँ
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उनकी लिखावट पर हम जान देते रहे |
उन्होंने कभी माना नहीं पर हम मान देते रहे |
मुझे क्या पता था ये उन्होंने सजावट के लिए लिखे हैं |
हमने जो भी लिखा उन्हें,वे कागज से मिटाते रहे |
कहीं उनकी सजावट के शायद अनुकुल न थे |
या उनके भावों के मूल न थे |
मैंने तो भेजा था तब ये खिले फूल से थे
न जाने राहों में ये कैसे शूल से बन गए |
पन्नों पर ही स्याही न जाने कैसे धूल से बन गए |
कैसे बदल गए शब्दों के अर्थ
कैसे बदली दुनियाँ ,कैसे बदल गयीं शर्त
जिनके लिए अबतक जिया
आज उनके लिए हम हो गए व्यर्थ |
कृष्ण तवक्या सिंह
15.11.2020