कवितालयबद्ध कविता
( लाॅकडाउन में सड़क पर धूल फाँकता खोखले और दोगले विकास का एक कटु सत्य )
पाल रखी थी अब तक जो
कुछ भी खुशफहमियाँ
दिले नादान की जाने कितनी
परतों के दरमियाँ
कुछ मसीहाओं के हाथों
मन की कटी पतंग पे
लिखी इबारत में लिपटे से
कुछ बहम
टूटते ख़्वाबों की इन सारी किरचों से
लोहूलुहान होते हुए से कुछ अहम्,
धूल में लिपटकर खोता,
रोता सा कोई अरमान
हाँ, जिनकी सारी संपत्ति है
बस कंधे से लदा,
चंद झोलों में सिमटा
चंद अदद सामान
हाँ, जिनकी आँखों का सपना,
गोदी, कंधे या सूटकेस पे
सोयी एक नन्ही सी जान
जिन्हें देखकर अनदेखा कर,
बैठा बनकर मूकसाक्षी,
निष्ठुर सा वो आसमान
धरती ने समा लिया है उसका
आँसू, खून और पसीना
हाँ, उनकी देह से
बिखरा-बिखरा सा
हर एक नगीना
छुपा हुआ हर दर्द,
उनकी अनसुनी सी आहों में
सहलाकर-बहलाकर
लिया समेट चुपचाप
इन हवाओं ने
वे सभी आज
नियति के कदमों में बिछकर
किसी की नीयत के
पत्थर पे घिसकर,
हालात की चक्की में पिसकर,
कदम-कदम पर खाकर ठोकर
अपना अदना सा वजू़द खोकर,
कभी जो बडे़ शौंक से बने बराती
बेगानी शादी में अब्दुल्ला से बनकर,
कुछ उम्मीदों के बीज बोकर,
वो बडे़ बेआबरू होकर,
इन कूचों से जुदा होकर,
लौट के बुद्धू बन के
घर को लौट रहे हैं
मासूम से इन अरमानों का
क्या कसूर था
क्यूँ हर एक लग रहा है
आज यूँ मजबूर सा
जो इस रंगमंच के
सब के सब कलाकार
करते-करते एक
अभिनय शानदार
पर्दा गिरते ही,
कड़वे सच के
इस अँधियारे में
एक तंग से गलियारे में
घेरकर यूँ आज उनका
गला घोट रहे हैं
द्वारा: सुधीर अधीर