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मुर्दे की चाह - Pratik Prabhakar (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

मुर्दे की चाह

  • 250
  • 6 Min Read

प्रेम एवं ध्यान से मुझे सहेजो क्योंकि पूरी जिंदगी
मैंने इसकी प्रतीक्षा की है
मैं इतना गरीब था कि
ना जमींदोज किया गया
ना ही दाह कर्म
मेरे परीक्षण कक्ष में
पड़े रहने का एकमात्र कारण

तुम मुझे चिरोगे काटोगे
विभाजित करोगे
लेकिन तुम्हारा सीखना पूर्ण होगा
घबराओ नहीं न्यायालय की
दफाओं में फसोगें  नहीं


मैं तुम्हारे साथ हूंगा
उज्जवल भविष्य को देखता
मैं शीतलक का ख्वाब
ठंडे पानी के लिए नहीं
देखता हूं अपने देह के भागों के
आवास के रूप में
छात्र मेरे चारों और अपने मित्रों के साथ
बैठते हैं कुछ काटते हैं
तो कुछ बातें करते हैं
भोजन परिवार और चलचित्र के बारे में
सोचो मैं कितना मनोरंजन करता हूं
विभाजन प्रक्रिया के उपरांत हवाले करते हैं अग्नि के

कंकाल तंत्र से अलग की जाती है
हड्डियों मुझे अजायबघर की शोभा
हेतु नियुक्त किया जाता है

हड्डियों के शक्ल में मैं होता हूं तुम्हारे झोले में
छात्रावास में
कभी-कभी तो तुम्हारे बिछावन पर

कितनी उन्नति पाता हूं
शायद नसीब होता जन्नत में
साथ नहीं छोड़ता
एक साल में पीछा करता हूं अगली कक्षाओं में

आयुर्विज्ञान में मृत शरीर जिंदा आदमी को सिखाता है
है एक विनम्र निवेदन
समर्पित हो रोग ग्रस्त के प्रति पाओगे
धन सम्मान और
अक्षुण्ण खुशी।।

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

बहुत ही बढ़िया

Pratik Prabhakar3 years ago

जी शुक्रिया

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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प्रपोजल
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माँ
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