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संस्मरण---कोरोना काल
* काँटो के बीहड़ में
कुछ महकते गुलाब *
कोरोना काल में भोगे संस्मरणों के बारे में क्या कहूँ ? बस पूछिए ही मत।
इस पर तो अच्छा खासा उपन्यास ही बन जाए। एक के बाद एक लॉक डाउन का सिलसिला। आगे भी बढ़ने पूरी ही तैयारी रहती।इस आपदा ने सामान्य जीवन अस्त व्यस्त कर दिया।सामाजिकता की दुहाई देने वाले हम भारतीय एकदम असामाजिक हो गए।बस मात्र मोबाइल पर पूछो हालचाल।
हाँ,,,जरुरी सामग्री जुटा ली तो समझो अहोभाग्य पर सेनेटाइज करने का सरदर्द।बच्चो की तो बस शामत, पास्ता अदि के लाले पड़ गए। कक्षाएँ ऑनलाइन,कितना बच्चे समझे ,वे ही जाने। टेस्ट गृहकार्य कुछ नहीं।
पुलिसवाला बेटा घर ना पहुंचे तब तक धुकधुकी ही लगी रहती है। सेविकाएं सवैतनिक छुट्टी पर ,सब काम हाथ से। लगा जैसे विदेश में रह रहे हो। मैं प्लेटिनम जुबिली मना चुकी,संक्रमित हो कहीं परिवार को संकट में ना दाल दूँ।एहतियायत के बतौर सब तरह की दवाई काढ़ा लिया व सबको दिया।सोने के जेवर उतार बैग तैयार ज़रूरी दवाइयों के साथ। कब संक्रमित हो जाऊं।
ऐसे में दैनिक वेतन भोगी, मज़दूर व घर से दूर रहने वाले विद्यार्थी जहाँ के तसीसीफ रह गए।हालांकि भारत की
सरकार एन जी ओ आदि ने मदद की। बंद के कारण देश की अर्थ प्रणाली ठप्प ,ऊपर से बढ़ते खर्च। यह घाटा सरकार कैसे पूरा कर पाएगी। सेना पुलिस मेडिकल टीम सफ़ाई कर्मी आदि के रुप में धरती के देवता के दर्शन हो गए।
किन्तु इन परेशानियों रूपी कांटो के जंगल में कुछ फूल भी खिले। कहते हैं ना आपदाएँ अवसर भी देती हैं।
मानव घर में बंद तो प्रकृति प्रसन्न,पंछी मौज में चहचहाने लगे,जंगल के राजा भी सड़क पर सैर करते दिखे। नदियां ताल आदि जल स्त्रोत निर्मल हो कलकल बहने लगे।
पूजा पाठ हवन जप तप में आस्था बढ़ी।बच्चे भी संस्कारित होने लगे।
रामायण महाभारत देखने लगे क्योंकि सीरियल्स आदि बंद। लगता भारत अपनी सनातनी राह पर पुनः चलने लगा।
सब मकान घर बन गए।सारे सदस्य एक साथ भोजन व चर्चा में लीन । घर में सहयोग कीभावना देख कर अच्छा लगा। सभी सदस्य घर का सारा कार्य सुचारू रूप से मिलजुल कर करने लगे।
आपसी तालमेल व मेलजोल भी बढ़ने लगा। अड़ोस पड़ोस में सबके दुःख दर्द में सहायता व सहानुभूति भी परिलक्षित होने लगी। सेवकों के प्रति हमदर्दी वश उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना अपना कर्तव्य भी याद आगया।
भारतीय प्राचीन परम्पराओं का पालन अगली पीढ़ी के लिए उदाहरण बन गया। बाहर से आने के बाद जूते चप्पल बाहर उतारकर सबसे पहले हाथ पैर धोना या नहाना बच्चे भी याद दिलाने लगे।बाज़ार की बनी चीज़ों का तो मानो बहिष्कार ही हो गया। घर पर ही शुद्धता से रसगुल्ला,बर्फी,चाट, कचोरी आदि बनते देख दिल बाग़ बाग़ हो गया।
और अपग्ना क्या कहूँ, अपनी साहित्य सेवा में लीन हो गई।ऑनलाइन गोष्ठियों से भी खूब मनोरंजन हुआ।
सरला मेहता