कविताअतुकांत कविता
जय माँ गंगे
गंगोत्री से उद्गमित होती
अद्भुत झरने बनाती हूँ
मैं हिमकन्या सुरसुता हूँ
पतितपावनी जान्हवी हूँ
प्रकृति की गोद से उतर
शिवजटा में समा जाती
हर की पेड़ी धर्मधाम में
आस्था दीप जलाती हूँ
विश्वनाथ शिव बाबा के
चरण पखारूँ काशी में
सरस्वती यमुना से मिल
संगम प्रयाग बनाती है
भीष्म पुत्र तेरा पराक्रमी
वचन की शान बढ़ती है
शपथ अंजुरी से माँ तेरी
सत्यनिष्ठा वचन निभाती
वेद पुराण उपनिषद भी
माँ तेरा गुणगान गाते हैं
अमृत बूंदें पवित्र जल है
मोक्षद्वार राह दिखाती है
खलिहान खेत पोषित हैं
हरीतिमा धरा को देती है
कल कारखानी धंधे सारे
आँचल को मैला कर देते
निर्मल निर्बाध माँ गंगे को
अभिशप्त क्यूँ बना देते हैं
देश की अमोल धरोवर ये
संस्कृति की महालेखा है
चूनर दागों को मिटाना है
फ़िर से भागीरथ बनना है
सरला मेहता