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पेट यूं ही नहीं भरता - Lakshmi Mittal (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकप्रेरणादायक

पेट यूं ही नहीं भरता

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  • 14 Min Read

कुर्सी के चारों ओर बेतरतीबी से फैले, मुड़े-तुड़े, अधलिखे पन्नों को देख कोई भी बता सकता था कि अपनी किताब के लिए कहानी लिखने बैठी नीलिमा का ध्यान, कहानी लिखने में केंद्रित नहीं हो पा रहा है।

"न जाने आज क्या हो गया है मुझे? विचार जहन के द्वार पर दस्तक देते ही ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग।" उसने झल्लाकर अपनी डायरी बंद की और आँख मूंदकर कुर्सी की बैक के सहारे सर टिकाया ही था कि डोर बेल बज उठी। और वो भी एक बार नहीं बल्कि एक साथ तीन बार। मानो बेल बजाने वाले के पास अगली साँस लेने का भी वक्त न हो।

"भरी दोपहरी में भला कौन आया होगा?" नीलिमा सोच ही रही थी कि "नीलिमा, मैं देखता हूँ। तुम अपना कार्य करो।" रसोई से नीलिमा के पति मेजर साहब की आवाज आई।

"नहीं, नहीं। आप रहने दीजिए। मैं देखती हूँ। वैसे भी थोड़ा ब्रेक लेना चाहती हूँ।" कहकर नीलिमा ने कड़ी धूप से बचाव के लिए सिर पर अपना दुपट्टा ओढ़ा और खुले लोन से गुजरते हुए मेन गेट तक जा पहुँची। ज्युं ही उसने गेट खोला, जीती - जागती गरीबी को अपने सामने पाकर, उसके पांव वहीं जड़त्व हो गए।

जगह-जगह से फटी साड़ी पर लगे पैबंद, उसके बदन को बमुश्किल ढांप पा रहे थे। उतरा चेहरा, धंसी आंखें, बिखरे उलझे बाल, नंगे पांव उसकी गरीबी को बयां करने के लिए काफी थे । गोद में चार-पाँच माह का अधनंगा अबोध बालक, संग में फटे-चिथड़ों में पल्लू पकड़े तीन बालिकाएं, न जाने उसकी कौन सी मजबूरी को इंगित कर रही थीं।

"कौन हो तुम? और इतनी चिलचिलाती धूप में इन नन्हे-नन्हे बच्चों के साथ यहाँ क्या कर रही हो?"

"मेमसाहब, कुछ खाने को मिल जाता तो.." नीलिमा की बात को अनसुना करती हुई वह स्त्री बोली।

"तुमने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया।"

" इस वक्त एक मजबूर, लाचार स्त्री हूँ।" स्त्री ने धीरे से कहा।

"आग उगलती इस धूप में इन बच्चों को लेकर बाहर निकलने से पहले एक बार भी नहीं सोचा कि इनकी तबियत खराब हो सकती है?

"मेम साहब, आसमां से गिरती आग से अधिक तो पेट की आग सताती है..। दो दिन से तो अन्न का एक निवाला भी बच्चों के पेट में नहीं गया । इस पापी पेट को भी हम गरीबों पर दया नहीं आती।" स्त्री के स्वर में वेदना झलक रही थी।

"तुम्हारा पति.. कहाँ है? क्या काम करता है?" स्त्री के ललाट के बीचों-बीच लगे सिंदूर पर नीलिमा का ध्यान गया।

"दिहाड़ी मजदूर है मेम साहब। एक महीना होने को आया.. गाँव गया था, अपने बूढ़े मां-बाप को लिभाने। मगर वहां पहुँचते ही उसकी तबियत बिगड़ गई जिसके चलते अभी तक वह यहाँ न आ सका।"स्त्री ने अपना दर्द व्यक्त किया मगर नीलिमा समझ नहीं पा रही थी कि वह उस पर विश्वास करे या नहीं।

"कहीं यह स्त्री, मेरी कहानी "अविश्वास" की वो पात्र तो नहीं जो अपनी मजबूरी और गरीबी की दुहाई देकर एक भले मानुष को लूट कर ले गई थी।"

"पिछले 2 दिन से घर में राशन बिल्कुल खत्म हो गया है। बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे तो मजबूरन मांगने निकलना पड़ा।"

स्त्री के कातर स्वर से नीलिमा अपनी सोच से बाहर निकली।

" जब संभलते नहीं है तो क्यूँ इतने-इतने बच्चे पैदा कर लेते हो?" नीलिमा, स्त्री पर भड़क उठी।
क्रमशः

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 4 years ago

Sunder..

Lakshmi Mittal4 years ago

जी हार्दिक आभार आपका।

दादी की परी
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