कहानीसंस्मरण
ट्रेन के लोकल डिब्बे का अनुभव
#संस्मरण
मेरा लोकल ट्रेन का यह अनुभव बेहद तनाव पूर्ण और चुनौतीपूर्ण था।बात पुरानी है।कुछ वर्ष पहले की है।
दिन भर की थकान के बाद मुंबई में ट्रेन में बैठते ही मुझे झपकी लग गई। कुछ समय पहले ही मैं ट्रैकिंग से लौटी थी और मेरे पैरों में बेहद सूजन आ गई थी, दाहिने पैर का नाखून भी उखड़ गया था।उस में बहुत ज्यादा दर्द हो रहा था, हालांकि बैंडेज वगैरह करवा रखी थी। झपकी आने से पहले मैंने गौर किया था कि सामने वाली सीट पर एक व्यक्ति टेलीविजन का बॉक्स गोद में रखे बैठा था।मेरी झपकी टूटी तो मैंने देखा कि वह मेरे बगल में बैठा था। मैंने उसको बुरी तरह डपट दिया, पूछा कि वह सामने की सीट से यहां कैसे आ गया।यह सुनते ही उसने कहा कि वह सीट उसकी नहीं थी किसी और की थी। वह अगले स्टेशन पर उतर जाएगा। यहां थोड़ी जगह देखी तो यहां बैठने आ गया था। मेरे हैंडबैग की जिप भी खुली हुई थी। मैं जल्दी से चेक करने लगी। यह देखते हुए वह कंपार्टमेंट से लपक कर बाहर जाने लगा। मैंने लोगों की ओर देखा, कि वे शायद मेरी मदद करेंगे, मैं चिल्ला रही थी, मगर किसी ने भी कोई मदद नहीं की।मेरा वॉलेट जिसमें चार - हजार से अधिक रुपए थे, ए टी एम कार्ड,आधार कार्ड,मोबाइल फोन थे,जा चुका था।
गीता परिहार
अयोध्या
केवल दिखावा ही करते है जरूरत के समय कोई साथ नहीं देता
जी,सच कहा।
सच में सोशल मीडिया पर वीडियो डालते यही लोग जब जरूरत पड़ती है तो बिल्कुल मदद नही करते