कवितालयबद्ध कविता
सड़कों पर यूँ पानी जैसा
बहता दिखता खून
उन रोटियों पर लाल रंग से
भूख और बेकारी का
यूँ लिखता मजमून
बेबसी के आँसू बनकर
आँखों से यूँ रिसता खून
व्यवस्था की इस चक्की में
घुन सा फँस निचुड़ता खून
इन सबका रंग लाल है
वाह वाह, क्या कमाल है
ये कुदरत है
या बस किस्मत
या फिर कोई
इंसानी फितरत ?
इस नियति का
या फिर इस नीयत का,
खुलेआम इंसानियत की
इस फजीहत का
कुछ लच्छेदार भाषणों में
मिली नसीहत का
सिर्फ जबानी जमा-खर्च का,
इस भूलभुलैया में खोये
हर फर्ज का
जाने कब से यूँ सफेदपोश
मानव के सिर चढते जाते
इंसानियत के कर्ज का
इन सब का रंग लाल है
हो रहा इस बेरहम सी छुरी से
न्याय कब से हलाल है
एकलव्य के कटे
अँगूठे से छलके उस खून का
रंग भी लाल था
और तब भी उस व्यवस्था की
हाँ में हाँ मिलाने वाले
द्रोण को अपनी करनी पर
कोई नहीं मलाल था
कुंती ने जिसको त्याग दिया,
कर्ण के उस चेहरे पर
कुंठा का रंग भी लाल था
चीरहरण का दंश झेलती
पांचाली के आँसुओं में
घुला खून भी लाल था
अब ये सब एकलव्य बन
कटा अँगूठा लेकर संग
माँगकर हिसाब पुराना,
इंक्लाब का गाकर
कोई नया तराना,
क्या डाल सकेंगे
इन अंधों और बहरों के,
कभी रंग में भंग
क्या द्रुपदसुता
कोई फिर से
केश रंगेगी रक्त संग
क्या कर्ण कोई
फिर से पूछेगा
कड़वे सच को कुरेदते
कुछ यक्षप्रश्न
हर प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है
लेकिन जनमानस चिंतित है
चैतन्य आज फिर व्यथित है
इस पीडा़ के साक्षी
गगन, पवन,
अनल, जल, भूतल,
इनका उत्तर कभी तो देगा
निर्विकार महाकाल प्रबल
उसके हर इंसाफ में
देर तो होती है शायद
पर अँधेर नहीं है
जिंदा इंसानों के शव हैं ये
हाड़-माँस के ढेर नहीं हैं
यूँ बार-बार अंधों के हाथों
लगती यहाँ बटेर नहीं है
द्वारा : सुधीर अधीर