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प्रेमी - मिन्नी मिश्रा (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

प्रेमी

  • 298
  • 13 Min Read

* प्रेमी *

जैसे ही सबेरे न्यूज़पेपर पर नजर पड़ी , ‘फ्रेंडशिप डे’ के आलेखों से पूरा पेज रंगा दिखा | मन में हलचल मच गई | अपने ऊपर गर्व महसूस करते हुए मैं बुदबुदायी, " वाह! बुढापे की ओर कदम बढने के बाद भी अवसर को निभाने का उत्साह मुझमें अभी जिंदा है|

चलो, सबेरे-सबेरे आज सभी को फोन करती हूँ |बड़े होने पर बच्चे भी तो अच्छे दोस्त बन जाते हैं | शुरू यहीं से किया जाय, मैं अपनी सबसे प्रिय दोस्त, बेटी को फोन करने लगी, कल उसके घर बहुत मेहमान आये होंगे... याद आते ही , मोबाइल के लाल निशान पर ऊंगली से अचानक दब गयी |

अब बोर्डिंग में रह रहे बेटे की याद आई ।
उसका नम्बर लगाया। घंटी लगातार बजती रही ..पर,फोन नहीं उठा ? जरुर सोया होगा ! आजकल के बच्चे,उफफफ ... ! न सोने का निश्चित समय और ना ही जागने का ।

छोड़ो, अब किसी को फोन करके अपना दिन खराब नहीं करना है । जाती हूँ, पतिदेव को जगाती हूँ |

“उठिए जी ...सुप्रभातम् |”

“ अरे वाह! मेरी सूरजमुखी आज चंद्रमुखी कैसे बन गई !” पति, एक आँख तिरछी कर मेरी तरफ देखते हुए बोले |

“ धत्त , इस उम्र में भी आप .. अच्छा मजाक कर लेते हैं । चलिए उठिए ,जल्दी से फ्रेश हो आइए । चाय बना कर लाती हूँ |"

“ वाउ... आज सूरज में शीतलता !” ऊँघाते ,बड़बड़ाते पति बाथरूम में घुस गये और मैं किचन में ।

मैं चूल्हे पर उबल रहे पानी में चायपत्ती डालने लगी कि कहीं से आवाज आई , “बत्तीस सालों से तुम्हें देखते-देखते तुमसे बेहद प्यार हो गया है और एक तुम हो ... जो मेरा जरा भी परवाह नहीं करती !

जैसे काम खत्म हुआ, लाइट बंदकर, निर्मोही की तरह सीधे अपने शयनकक्ष में चली जाती हो ! और यहाँ मैं .. अँधेरे में तुम्हारा इन्तजार करते रहता हूँ !”

“ अरे.. कौन ? सामने तो आओ। बत्तीस सालों से मेरा चेहरा देख-देख कर पति ऊब गये ! बच्चों को भी मुझमें खामियां नजर आने लगी और, वाह! तुम्हारा प्यार परवान चढ़ रहा है ! जरूर कोई सनकी- पागल होगा । आजकल आधुनिकता के साथ पागलों की संख्या भी बढ़ते जा रही है। ” रेक पर रखे दो चमचमाते कप को उतार भनभनाते हुए, मैं उसे ट्रे में सजाने लगी |

“सच कहता हूँ, तुम पहले से भी अधिक सुघड़ लगने लगी हो | सुनो, मुझसे जितना अधिक पिरेम करोगी .. घर के बाकी लोग भी तुमसे उतना ही अधिक पियार करेंगे , हाँ ...|” उसके आवाज से जैसे शहद टपक रही थी, सुनकर मेरे कान तप रहे थे।

मैं तमतमाते हुए जोर से बोली, “ आज फ्रेंडशिप-डे है.. ‘एप्रिल-फूल’ नहीं....समझे ! भाग यहाँ से । अरी , ओ... जल्दी सुनिए , देखिए , शायद, हमारे घर में कोई पागल घुस आया है ! ”

तभी चूल्हे पर चढ़ी चाय में एक तेज उफान आई,
चाय गिरी , साथ में चायपत्ती भी। फक्क ...अवाज के साथ दहकता बर्नर बुझ गया ।

हे भगवान! चूल्हा कितना गंदा हो गया ! मैं दुखी हो शेष बचे चाय को कप में उड़ेल रही थी कि,

इसी बीच फिर से मधुर आवाज , “मैडम जी, मुझे पहचाना नहीं ? मैं आपका प्रेमी ... ‘ किचन ’
हा...हा हा.. |” गूँज उठी ।

---- मिन्नी मिश्रा /पटना
स्वरचित/ मौलिक

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

आपकी वाल पर भी पढ़ी थी यह रचना फिर से पढ़ी बहुत सुंदर लिखा है।

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

बढ़िया

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