कविताअन्य
कल रात चाँद की चाँदनी
मेरे घर की खिड़की का सीना चीरते हुए,
मेरे कमरे में दाखिल हुई और वो हल्की हल्की रोशनी ।
मेरे कमरे में पड़ी चीज़ों पर कुछ यूँ बिखर रही थी,जैसे मानो मुझसे कुछ कह रही हो।कुछ हसीन लम्हें कैद थे उन चीज़ों में,
हमारे कमरे की वो तस्वीर मानो मुझे देख रही थी
और सवालों की अदालत में,
मुझसे जवाब माँगते हुए कठघेरे में लिए खड़ी पूछ रही थी।
क्यों उदास रहती हूँ मैं,उस तस्वीर की तरह मुस्कुराती क्यों नहीं हूँ।
वो नूर कहाँ है मेरे चेहरे से,जो इनसे मिलने के बाद आया था।
कहाँ गया वो साथ जो इस तस्वीर में नज़र आ रहा है कहाँ हो वो "तुम"।
मैं चुपचाप आँखो में आँसू भरे उसे सुन रही थी,
यूँ तो वो केवल एक तस्वीर थी।
पर मुझे वो हर लम्हा याद दिला रही थी जिसमें मुझे इन्हें पाने की खुशी थी।
और इतने सारे ख्वाब थे जो पूरे होते होते भी खत्म न होते।
और मैंने अपने मन पर हाथ रखते हुए उस तस्वीर से कहा-
"ठहरो तुम्हे क्या समझाऊँ,वो समझे मुझे
ऐसे एहसास कहाँ से लाऊँ।
सब कुछ हो वैसा जैसा हम चाहते है,
कहाँ ये मुमकिन होता है।
ये तो दस्तूर है दुनिया का,
जिसे तुम दिल से करीब चाहो,
वो उतना ही दूर होता है"
तू समझ ठहर जा,मैंने भी खुदको समझा लिया है।
हाँ उसे दिल से नहीं पा सकी तो क्या,रिश्ते में तो पा लिया है।
जैसे वो चाहे वैसे अब तू भी ढल जा,अपने
सपनों को एक संदूक में दबा लिया है।
बस इतना ही कह पाई उससे और फिर कब आँख लगी पता ही नहीं चला।
और आज की सुबह उस चाँदनी के साथ मेरे ख्वाब भी चले गए।
©भावना सागर बत्रा
फरीदाबाद,हरियाणा