कविताअन्य
फिनिक्स
जब जब मैं खिड़की को देखती
उस में मेरी ही तस्वीर नजर आती
वही चौखट में बंधी
जकड़ी सी एक जगह
उम्मीदों की हवाएँ
दिल के झरोंखे से
अंदर बाहर मचलती
या सूरज की किरण
अंधकार को चीरकर
आशाएँ विश्वास जगाती
चौखट में बंधी मैं
थोड़ी भी ना हिल पाती
रस्मों रिवाजों की सीमेंट
मेरे अरमानों की रेत बनाकर
बेड़ियों के पानी से
उसे और मजबूत करती
तेज हँवा के झोंकों से कभी
मन के पट खुल जाते
फिर से कोई सधे हाथ
उसे बंद कर देते
मैं भी पंछी बनकर
उड़ना चाहती हूँ
हिरणी की तरह भागते
कुलाचे लगाना हैं
मन के भावों के
गीत गुनगुनाना हैं
आँखों के सपनों को
पलकों के चिलमन से
मुक्त करना हैं
क्या ये संभव हो सकता?
क्या ये संभव हो सकता ?
मन मसोसकर रह जाती
दिल की गिरह अब
खोलकर देखना हैं
एक दिन हौसले के ताकत से
दीवार को हिलाया
ढीली होती खिड़की को
उड़ान भरने हँसाया
वह भी थी बेताब
चौखट से निकलने
कागज कलम के पतवार से
डूबते अरमानों को बचाया
पर्वाह ना करते हुए
बंदिशों को चिढ़ाकर
महकते शब्दों को
खुले आसमां में उड़ाया
सूरज की रोशनी में
उम्मीदों की धूप पाकर
खिलती कलियाँ भी
चटक रही थी
मस्ती में बादलों से ठिठोली करने
खिड़की ने भी आँख मारी
और मैं?मैं फीनिक्स बनकर खड़ी थी
बुझते हुए अंगारों पर
डॉ.नीलिमा तिग्गा’नीलाम्बरी’
स्वरचित, मौलिक