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आस्था और विश्वास : मानव चेतना के बँधक
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हम आस्था और विश्वास को मानव चेतना को गति और ऊर्जा देनेवाला मानते हैं पर ऐसा नहीं है | यह हमारी चेतना को जकड़ लेता है | यह हमें उस तरफ जाने से रोक देता है जिस ओर अनुभव हमें ले जाना चाहता है | तथ्य जिस तरफ इशारा करते हैं उसे खोजने की जिज्ञासा को रोक देता है | हम अपनी मान्यताओं के विरूद्ध मिले तथ्यों और अनुभवों को नकारने लगते हैं और डर जाते हैं कि कहीं हम गलत दिशा में तो नहीं जा रहे | क्योंकि जो नई दिशा है उसके कोई मानक हमारे पास नहीं होते और अज्ञात की ओर जाने की हिम्मत हम कर नहीं पाते | हमें हमारी आस्था या विश्वास के विपरीत कोई बात सुनने में आ जाती है तो हम असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और यही असुरक्षा का बोध हमें बौखलाने पर मजबूर कर देता है | हम गति नहीं करना चाहते | हम अपनी चेतना को खोज में लगाना नहीं चाहते क्योंकि यह असुविधा पैदा करती है और उनका विरोध झेलने के लिए भी बाध्य करती है जो इस आस्था और विश्वास से अबतक बँधे रहे हैं | हम अपनी मान्यताओं ठहरना चाहते हैं जहाँ लोगों के द्वारा हमें सही होने का आश्वासन और समर्थन मिलता है | और अपनी चेतना को उन्हीं मान्यताओं की सिद्धि के लिए तर्क जुटाने में लगाना चाहते हैं जो हमें आश्वस्त कर सके की हम सही हैं | झगड़े वहाँ तुरत शुरू हो जाते हैं जहाँ हमारी आस्था पर कोई सवाल उठ जाता है | क्योंकि ये सवाल हमारी जमीन खिसकाने लगते हैंं और हमें डराने लगते हैं | हमें इसकी अनुभूति नहीं होती और बिना अनुभव के हम इन सवालों के उत्तर दे नहीं पाते | हम सवाल करनेवाले को ही मिटा देना चाहते हैं | हमारी यही प्रवृति हमारी चेतना को बँधक बना लेती है और हम दूसरों की गुलामी करने लग जाते हैं | चेतना की स्वतंत्रता के लिए हमें आस्था और विश्वास के बँधनों को अनुभूति और अनुसंधान से उपजी प्रज्ञा से भस्म करना ही होगा | हमें इनसे अपनी चेतना को मुक्त करना होगा तभी हन आगे बढ़ सकते हैं | क्रांति ला सकते हैं चेतना के स्तर पर |
कृष्ण तवक्या सिंह
29.10.2020