कहानीसंस्मरण
नवरात्र आते ही याद आता है गुजरात के अहमदाबाद शहर में बिताया हुआ अपना बचपन।यह बात है 1965 के आसपास
।गुजरात के सबसे लोकप्रिय त्योहार नवरात्रि पर “केसरियो रंग तने लाग्योल्या गरबा”, खोडियार छे जोगमाया मां, माणी तारो गरबो घुमतो जाय, मारी महिषासुर ..ढोल वागे छे" जैसे गरबों पर नौ दिन गरबे करते थिरकना याद आ जाता है।
नवरात्र के पहले दिन घरों में घट स्थापन की जाती और सात धान की बुवाई, जिसे झवेरा वावी कहा जाता है और झवेरा की देवी रूप में पूजा कर व्रत रखा जाता।
गरबा सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। त्यौहार के आगमन से एक महीने पहले तैयारियां शुरू कर दी जातीं; सफाई, रंग-रोगन,पीतल के बर्तनों पर पॉलिश,रंगोली,आशोपालव के तोरण (वंदनवार) बनाना ,मिठाईयों का बनना शुरू हो जाता।मोहल्ले -मोहल्ले रौनक होती।चारों ओर खुशी का माहौल होता।
बाजार देवी के मंदिर, श्रृंगार का सामान, धूप-दीप, अगरबत्ती, सिंग-सांकरिया-रेवड़ी, पेडे की दुकानों से सज जाते।
आज कल तो छोटी-छोटी बालिकाओं के लिए माता-पिता चनिया-चोली और आभूषण खरीदते हैं।हम तो घर से सलवार कुर्ता पहन कर निकलते और सहेली के घर उनकी मम्मी की साड़ी कुर्ते के ऊपर ही गांठ लगाकर लपेट कर कई सारी सेफ्टी पिन से बांध
गरबा करने पहुंच जाते।अश्विन मास की नवरात्रों को गरबा मनाया जाता है। नवरात्रों की पहली रात्रि को गरबा की स्थापना होती है। फिर उसमें चार ज्योतियाँ प्रज्वलित की जाती हैं।मां की तस्वीरें या प्रतिमाएं सजा कर चारों ओर दीप जलाए जाते और गोलाकर रचना में गरबा किया जाता।ऐसा मानना है कि माँ आदिशक्ति ऊर्जा का स्रोत है और दीप उनकी ऊर्जा का अंश। जब लोग इसके सामने नृत्य करते हैं तो उन्हें भी अध्यात्म की ऊर्जा महसूस होती है और उनके जीवन का अंधकार दूर होता है। जीवन हर्ष और उल्लास से भर जाता है।
इसी गोलाकार रचना के चारों ओर ताली बजाती फेरे लगाते थे। उस समय सिर्फ दो ताली बजाते थे, लेकिन आज आधुनिक गरबा में नई तरह की शैलियों का उपयोग होता है, जिसमें दो ताली, छः ताली, आठ ताली, दस ताली, बारह ताली, सोलह तालियाँ बजा कर खेलते हैं।डिस्को गरबा नृत्य शादी के महोत्सव और अन्य खुशी के अवसरों पर भी किया जाता है।
हमारे लिए एक और आकर्षण हुआ करता था,"लाणी"यह छोटे - छोटे पीतल के बर्तन जैसे कटोरियां,चम्मच,मटकी हुआ करते जो गरबे की समाप्ति पर बांटे जाते थे।उन दिनों प्लास्टिक का चलन नहीं हुआ था।
गरबा रात दो बजे तक चलता या चार बजे तक,बच्चे घूम -घूम कर देखने की कोशिश करते कि कहां की लाणी अच्छी है।मगर आयोजक भी लाणी को इतना ढक कर रखते की झलक तक न मिलती।कई बार एक जगह से दूसरी जगह पहुंचते तो पता चलता कि लाणी बंट चुकी है।तब बहुत ठगा हुआ महसूस करते!
वे दिन भी क्या दिन थे!हम कितनी भी रात को अकेले आते ,बाहर चारपाईयां लगी होतीं। हमारी चारपाई पर भी मच्छरदानी लगी होती। हम आते और आकर सो जाते, ना रास्ते में किसी का डर होता और ना बाहर चारपाइयों पर सोने का डर।