कवितालयबद्ध कविता
चलो सँभलकर इन राहों पर
सचमुच फिसलन बहुत है
टेढ़ी-मेढ़ी सँकरी सड़कें
पल-पल पग अटके-भटके
है जमी जोखिमों की काई
दोनों ओर पतन की खाई
पाँव फिसलने को यहाँ पर
क्षणिक प्रमादों की छोटी सी
रपटन बहुत है
सचमुच फिसल बहुत है
हम रोज निभाते रिश्ते ऐसे
चुका रहे हों किश्तें जैसे
सिर को ढकें पाँव उघड़ें
सियें एक को, दस उधड़ें
पड़ गया प्रेम का धागा छोटा
मन में उधड़न बहुत है
बना औपचारिक हर रिश्ता
आँखों में प्रेम नहीं दिखता
रस्म रिवाजों के भारी-
भरकम से पाटों में फँसकर
मन का मधुर भाव है पिसता
अहंकार की गाँठों से
सम्बन्धों के धागों में
उलझन बहुत है
हैं प्रश्नचिन्ह इतने बड़े
सब उत्तर छोटे पड़े
किसे सहेजें, किसको फेंके
सब सिक्के छोटे पड़े
पग-पग पर है खड़ी चुनौती
पल-पल बनता एक कसौटी
संशय की कैंची करती है
संकल्पों में रोज कटौती
अवसर करते नहीं प्रतीक्षा
जीवन लेता अग्नि-परीक्षा
आदर्शों की लक्ष्मण-रेखा में
सिमटे सच की राह में
सचमुच उलझन बहुत है
सचमुच फिसलन बहुत है
द्वारा: सुधीर शर्मा