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मनवा रे - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मनवा रे

  • 126
  • 10 Min Read

मनवा रे
तू बन जा रे
एक अद्भुत दक्ष लेखनी
बस आँख देखती चिड़िया की
अर्जुन सी एक लक्ष्यभेदिनी
मनवा रे
तू बन जा रे
एक अद्भुत दक्ष लेखनी

उद्दीप्त होकर
निर्लिप्त होकर
चेतना की भरकर स्याही
लिखता जा तू बस सच्चाई
हाँ, अहंकार ना आये तुझ में
जब भी लिखे तू अच्छाई

खिल कीचड़ में
कमल बनकर
शुद्ध-बुद्ध, निर्मल बनकर
मन में बसा तू
एक एक ऐसी बंदगी
हाँ, जब भी लिखे तू गंदगी
मुँह कभी तेरा ना हो गंदा
ना पडे़ गले में
किसी पाप का कोई फंदा

बन महारास में योगेश्वर
बन कामनाशक महेश्वर
हर कुरुक्षेत्र में दिग्भ्रमित
विचलित अर्जुन का
कृष्ण बन
अज्ञातवास की ओर बढ़ते
धर्मराज की राह रोककर,
कुरेदता सा यक्षप्रश्न बन

भेदभाव से ऊपर उठकर
लिख तू सबसे पहले खुद पर
फिर व्यक्ति, परिवार,
देश, समाज पर
और आस-पास,
कण-कण से लिपटे
हर लमहे की गोदी में सिमटे
इस कल से पल-पल निकलते
उस कल की ओर फिसलते
हर एक आज पर
हाँ, मन में कुछ ऐसा
अनोखा सा अंदाज भर
एक नयी सुबह का
पल-पल मे आगाज कर

बस लिखते रहना ही तो
तेरा काम नहीं
ये तो सिर्फ
एक सफर है,
एक मंजर है,
मंजिल नहीं,
अंजाम नहीं
बस हाथ में फिरती एक माला है
बाट जोहती एक
शबरी का राम नहीं है

जो लिखता है,
खुद उसमें जी
उससे छलके हर दर्द को
बूँद-बूँद पी
पी नीलकंठ बन
मन-मंथन से
उपजा दारुण कालकूट
धर शीश पर चेतना-गंगा
और बाँध ले
कल्पना के जटाजूट
सब कुछ पीछे जाये छूट
काम,क्रोध, मद,लोभ,
उत्तेजना,उन्माद,क्षोभ

मन में धरकर अद्भुत संयम
हो सके तो,बाँध ले अपना अहम्
तू चिदानंद शिव रूप है
सत्यं शिवं सुंदरम्
खोलकर ये तीनों लोचन
जग के त्रिविधतापमोचन
कर विष पीकर अमृतसृष्टि
भर छंद-छंद में नवदृष्टि
भावों के मेघों से
कर तू नवरस वृष्टि

संकल्प को तू बना भगीरथ
कविता के हर अवतरण को
बना एक पावन तीरथ
बहा सद्भावना की देवसरिता
उमड़ हर कंठ से
बन प्रेम की
एक दिव्य कविता

बहुजन हिताय
बहुजन सुखाय
जन-जन की
मनमोहिनी बन
नवचेतन की
उद्बोधिनी बन
हर शब्द का तू
एक अद्भुत अर्थ बन
बन गायत्री की दिव्यता
उसके समान समर्थ बन
हर चिंतन से बनकर
एक विवेक निकल
रे मन तू
अमर लेखनी बन

द्वारा : सुधीर अधीर

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Anjani Tripathi

Anjani Tripathi 3 years ago

बहुत उम्दा रचना है

Sudhir Kumar3 years ago

धन्यवाद

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