कहानीव्यंग्यअन्य
बचपन के रूप...
( बचपन कैसा होना चाहिए?..... "बिंदास! कोई चिंता नहीं, हमेशा खेलना, कूदना और स्कूल जाना तथा पढ़ना!..... ऐसा ही होना चाहिए ना! ठीक कहा ना! मैंने.....।"
पर ऐसा नहीं होता। हर किसी के साथ। इसी से संबंधित मेरी एक छोटा- सी व्यंग कथा है बच्चे के बचपन के बारे में..... जो इस प्रकार है।)
एक छोटा- सा बालक था..... नाम था उसका * फतह !.... रोज आता था अपने छोटे से खिलौनों के साथ और घंटो खेलता रहता था सामने के पुराने घर मे.....उसके साथ।
लग जाता था छत के दीवारों को बड़ी सिद्दत से तोड़ने। ना थी उसे कड़ी धूप की फिकर।..... फिकर थी तो सिर्फ कैसे और कितनी तेजी से उसे तोड़ सके।
ताकि मालिक से खेल के ईनाम पा सके। भूखे- प्यासे बस अपने खेल में लीन रहता था पसीने से तरबतर खेलता रहता था।
खिलखिलाता था जो कभी बचपन में.....अपनी माँ के आंचल में। जिसकी चहरे की रंगत अब जा चुकी थी। हर रोज सुबह- सुबह आ जाता। और अपने खिलौने के साथ शाम तक उससे खेलता रहता।
ना थी माँ की प्यार भरी पुकार की..... "बेटा! आ जा धूप बहुत हो चुकी है आकर खाना खा ले। धूप में प्यासा कब तक खेलेगा, बीमार पड़ जाएगा..... कौन कहे ?..... उसे!
तोड़ते- तोड़ते थक जाता। जब थोड़ी देर रूक कर फिर से खेलने लगता, अपने खिलोने के साथ। ना मिलता, खाने को पौष्टिक खाना। पर रूखी- सुखी जो मिलता खा लेता। ना कर पाता नखरे, फिर भी बाजुओ में ताकत की कोई कमी ना थी उसके।
कुछ हालात ने उसे खिलौना की जगह..... थमा दिए थे औजार !..... जिम्मेदारी उठाने के लिए। या कहे! "खिलौना कुछ अलग था जो शायद ही! किसी बच्चे को पसंद आता।"
पर उसे मजबूरन..... उससे खेलना पड़ता था क्योंकि उसके पास और कोई रास्ता ना था "बचपन क्या होता है? शायद! उसे पता ना था। या फिर कह सकते हैं कि "वह अपनी उम्र से अधिक बड़ा हो चुका था।"
@चम्पा यादव
8/10/20