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मेरे संस्मरण - हसवा - संजय निगम (Sahitya Arpan)

लेखअन्य

मेरे संस्मरण - हसवा

  • 30
  • 48 Min Read

मैं अपने आप को बहुत सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे जीवन में कुछ चमत्कारी अनुभव हुये है। इसमें से एक को मैं आज सबके साथ साझा कर रहा हूँ। सन् 2000 से 2004 के मध्य का कोई समय होगा, जब मैं एक सरकारी बैंक में कार्यरत था, । मेरे आदरणीय चाचा जी एक संत, जिनको हम सब आदर से गुरु महाराज कहते है के परम भक्त थे| वो फ़तेहपुर जनपद में स्थित ग्राम हसवाँ में अपने आश्रम में विराजते थे। उनकी आयु के बारे में उनको जानने वाले व्यक्तियों को कोई अनुमान नहीं था| हसवाँ गाँव के निवासियों और उनके शिष्यों में से कोई भी उनकी आयु के बारे में नहीं जानता था कुछ वृद्ध लोग ये भी बताते थे कि वो गुरु महाराज को अपने बचपन से इसी अवस्था में देख रहे थे| गुरु महाराज की कद लगभग छह फूट था और शारीरिक बनावट भी ठीक थी|

आदरणीय चाचा जी प्राय: गुरु महाराज के आश्रम जाते रहते थे। मैं भी बाद में उनके साथ एक या दो बार आश्रम गया था। एक बार चाचा जी के आश्रम प्रवास के समय गुरु महाराज ने चाचा जी से भारत भ्रमण की इच्छा प्रकट की और इसका अविलंब ही व्यवस्था करने के लिए कहा। चाचा जी ने अविलंब ही व्यवस्था करनी आरंभ कर दी। एक मारुति ओमनी जोकि बिलकुल नयी थी। को इस काम के लिए नियत कर लिया गया| इस वाहन से पिछली सीट निकाल कर उसमे गद्दों की व्यवस्था की गयी थी|कुछ समय पश्चात् गुरु महाराज की भारत भ्रमण यात्रा के क्रम में गुरु महाराज का उनके आश्रम से कानपुर हमारे निवास (जिसमे चाचा जी भी साथ में रहते थे) आगमन हुआ| गुरु महाराज के बहुत से शिष्य (भक्त) कानपुर से थे और उन कुछ दिनों में हमारे घर पर चौबीसों घंटे उनके शिष्यों का मेला सा लगा रहता था| गुरु महाराज के पास कोई भी व्यक्ति उनकी आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं करता था| अत: उनके हमारे घर पर आने के पश्चात् किसी ने भी उनके अगले कार्यक्रम के बारे में कुछ भी नहीं पूंछा था| उनको हमारे घर पर आये हुए कुछ दिन बीत चुके थे| हमारे घर की वो कुर्सियां जोकि हम सबके लिए बहुत आरामदायक थीं उनके शरीरिक बनाबट के कारण उनके लिए असुविधाजनक प्रतीत हो रही थी| चाचा जी को यह अनुभव हुआ कि अभी भारत भ्रमण के लिए निकलना है और इस कुर्सी पर भारत भ्रमण में कठिनाई आ सकती है|

इसके लिए उन्होंने कुछ पुराने शिष्यों से आग्रह किया कि यदि कोई नियत की गयी गाडी से आश्रम जाकर गुरु महाराज की कुर्सियां ला दे तो बाकी की यात्रा आरामदायक हो सकती है| किन्तु अपने कारणों से कोई भी जाने को तैयार ना हो पाया| मेरी बैंक शाखा एक प्रात: कालीन शाखा थी अत: मै लगभग दोपहर 2.30 पर घर आ गया था| दोपहर का भोजन अभी नहीं किया था| तभी चाचा जी ने मुझे बताया कि आश्रम से कुर्सियां लानी हैं और कोई भी जाने के लिए तैयार नहीं है| इस पर मै आश्रम जाने के लिए तैयार हो गया| मुझे या यूं कहूं कि मेरे सभी घर वालो को सामान्य रूप से खाने पीने का होश नहीं था| गाडी तैयार ही थी, मै अपने फूफा जी और ड्राईवर महोदय के साथ आश्रम के लिए रवाना हो गया| आश्रम का रास्ता फतेहपुर से होकर था| फतेहपुर से कुछ पहले एक स्थान मलवां पड़ता है यहाँ के पेड़े (खोया या मावा की एक मिठाई) बहुत प्रसिद्ध हैं| जैसे ही गाडी मलवां से होकर गुजरी| मैंने अपने फूफा जी को बताया कि यहाँ के पेड़े बहुत प्रसिद्ध हैं| उसी समय ड्राईवर ने कहा की यहाँ की चाय भी बहुत अच्छी होती है| हम लोग मलवां की सबसे प्रसिद्ध दूकान मोहन पेडा पर रुके| उस समय वो दूकान एक सामान्य गाँव की दूकान की तरह थी जिसमे बाहर बैठेने के लिए एक ईंट की बनी हुयी बेंच (चबूतरा) थी, जिसमे बैठ कर लोग दूकान में जलपान किया करते थे|

मेरे कानपुर से निकलने के तुरंत बाद में गुरु महाराज ने मेरे चाचा जी को बुलाया, जबकि सामान्यत: इस समय गुरु महाराज विश्राम किया करते थे| उन्होंने चाचाजी से पूँछा कि क्या किसी को आश्रम भेजा है| मेरे बारे में बताने पर उन्होंने फिर पूंछा कि उसने निकलने से पहले खाना खाया कि नहीं ? चाचाजी ने कहा कि खाना तो खा ही लिया होगा| गुरु महाराज ने पुनः कहा कि मुझे अभी पता कर के बताओ| वो लड़का खाना खाकर नहीं गया है| घर में पता करके चाचाजी ने गुरु महाराज को बताया कि मै खाना खाकर नहीं गया हूँ| पुनः एक प्रश्न पूंछा गया की इतनी शाम को भेजने की क्या जरूरत थी| गुरु महाराज ने पुनः कहा कि अब इन लोगों के खाने की और सुरक्षा की व्यवस्था मुझे ही करनी होगी| मै दोनों लोगों के साथ यात्रा में था और मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं था|

ड्राईवर और फूफाजी दूकान के बाहर चबूतरे (बेंच) पर बैठे थे| मै दूकान के अन्दर गया| अन्दर काउंटर पर एक व्यक्ति बैठा था| मैंने उससे तीन पेडे (यहाँ के पेडे एक किलो में आठ चढ़ते है) देने को कहा| उसने बताया कि परिवार में शादी के कारण आज पेडे बने नहीं है| उसने मुझसे कहा कि मै आपको पेडे के स्थान पर रसगुल्ले भेज रहा हूँ| मैंने रसगुल्ले के लिए मना किया और चाय के लिए आदेश दिया| इस पर उसने कहा की मुझे आलू की चाट लेनी चाहिए| मैंने उसके लिए भी मना किया| चाय का आदेश मै दे ही चुका था अतः मै भी बाहर आ कर बैठ गया| कुछ देर में तीन दोनों (पत्ते का बना हुआ एक पात्र) में दो दो रसगुल्ले जो कि काफी बड़े थे हमलोगों को दे दिए| भूंखे होने के कारण हमने वो रसगुल्ले खा लिए| अब वो व्यक्ति जो काउंटर पर बैठा था हमारे पास आ गया था और हाँथ जोड़ कर हमसे पूँछ रहां था कि और क्या लाया जाए| मै परेशान था कि ये तो पीछे ही पड़ गया है| मेरे मना करने के बाद भी उसने अपने नौकर को आवाज़ देकर तीन दोनों में आलू चाट लाने को बोला| इसके बाद वो अपने काउंटर पर जाकर बैठ गया| आलू चाट के बाद हमको चाय दी गयी| वास्तव में तीनो ही चीजे बहुत स्वादिष्ट थी| इस बीच में कोई और ग्राहक दूकान में नहीं आया था|

चाय ख़त्म करने के बाद मै काउंटर पर भुगतान के लिए गया| मैंने पूँछा की मेरा भुगतान कितना हुआ तो मुझसे पूंछा गया कि मैंने क्या क्या लिया| मै पहले से गुस्से में था कि मेरे मना करने पर भी पहले तो इस व्यक्ति ने रसगुल्ले और आलू चाट जबरदस्ती दे दी फिर ये पूँछ रहा है कि मैंने क्या क्या लिया| मैंने उसको बताया कि हमने क्या क्या लिया है| इस पर वो बोला कि रसगुल्ले और आलू चाट तो आपने मना कर दी थी इसलिए मै उसके पैसे आपसे नहीं ले सकता| जबकि मेरा कहना था कि जो भी चीजे हमने खायी थी उसका भुगतान हम करेंगे| लेकिन बहुत विनती करने पर भी उसने केवल चाय के पैसे ही लिए| हमारे समझ में नहीं आ रहां था की इस को क्या हो गया है|

हमको देर हो रही थी अतः हम वहां से प्रस्थान कर गए| शाम का लगभग 6.30 हो चुका था और हम लोग हस्वां गाँव पहुँचने वाले थे तभी बहुत से कुत्तो की बहुत जोर से चिल्लाने की आवाज़ आनी आरम्भ हो गयी| मेरा अभी तक आश्रम आने का यह पहला मौका था| हम लोग जैसे जैसे आश्रम के पास पहुँचते जा रहे थे वैसे वैसे इन कुत्तो की आवाजे और तेज़ होती जा रही थी| अंततः लगभाग शाम 7.00 बजे हम आश्रम पहुचे और देख कर भयभीत हो गए, क्योकि अब हमारी गाडी को तमाम कुत्तो ने घेर लिया था और वो जोर जोर से शोर मचा रहे थे| हम सब गाडी के दरवाजे बंद किये बैठे थे| तभी कुछ आश्रम के लोग गाडी के पास आये और हमसे दरवाजे खोलने का आग्रह किया| बहुत भयभीत होने पर हमने उन लोगों से इस कुत्तो को दूर करने के लिए कहा| उन लोगों ने हमें आश्वस्त किया की आप दरवाजा खोल कर बाहर आ जाइये, ये कुछ नहीं करेंगे| मेरे साथ के दोनों लोगों ने बाहर निकलने से स्पष्ट मना कर दिया था| मेरा आश्रम आने का कारण भी ऐसा ही था की मजबूरी में मुझे दरवाजा खोल कर बाहर आना पड़ा|

वो सभी कुत्ते मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे थे जैसे कोई पालतू कुत्ता अपने मालिक के घर आने पर करता है| वो मुझसे चिपटे जा रहे थे| अंततः मुझे उनको शांत करने के लिए उनको दुलारना पड़ा और उन पर हाँथ फिराना पडा| मै चकित था क्योंकि मै उस दिन पहली बार आश्रम आया था| अब मैंने अपने आने का मंतव्य वहां के लोगों को बताया| मुझे बताया गया कि गुरु महाराज की कुर्सियां प्रथम तल (फर्स्ट फ्लोर) पर है| मै उन लोगों के साथ प्रथम तल के लिए सीढियां चढ़ने लगा| पुनः चकित होने का पल फिर से उपस्थित था| कुछ कुत्ते प्रथम तल पर भी थे और वो भी वैसे ही चिल्ला रहे थे| मेरे, आश्रम के लोगों के साथ वहां पहुँचने पर नीचे वाला दृश्य फिर उपस्थित हुआ, अब मै तैयार था| पुनः मैंने इन कुत्तो को दुलार किया और हाँथ फिराया| और कुर्सियां लेकर नीचे उतर आया|

चमत्कारों की श्रंखला का अभी अंत नहीं हुआ था| आगे और भी कुछ मेरी प्रतीक्षा में था| मेरे कानपुर से चलते समय मेरे चाचाजी ने मुझसे कहा था कि हस्वां आश्रम से लौटते समय हस्वां गाँव से गुरु महाराज के परम प्रिय शिष्य (जिनका नाम मै अभी भूल रहा हूँ) को भी साथ में लेते आना| रात का लगभग 9.30 बज गया था| और हम लोग गाड़ी को लेकर हस्वां गाँव में प्रवेश कर गए थे| मेरा आना ही पहली बार हुआ था अतः जिनके घर हमें जाना था उनका घर हमें पता नहीं था| गाँव में थोड़ी दूर चलने के बाद रास्ते में एक जगह पानी भरा हुआ मिला| ड्राईवर ने आगे गाडी ले जाने से मना कर दिया क्योकि उसको पता नहीं था कि वहां पर कितनी गहराई थी| उसने गाडी की हेडलाइट जला रखी थी और मै सावधानी से पानी के किनारे से आगे निकला| गाँव में सन्नाटा पडा था कोई भी रास्ता बताने वाला नहीं था| मै पशोपेश में था कि अब क्या किया जाय|
तभी मुझे ऐसा अहसास हुआ कि शायद कुछ फुसफुसाहट जैसी आवाज़ आ रही है| मैंने आवाज़ की दिशा में देखा तो मेरे होश उड़ गए मेरे ऊपर दोनों ओर घरो से मेरे ऊपर बंदूके तनी हुयी थी| मै ना तो आगे बढ़ने के स्थिति में था ना ही पीछे होने की| कुछ पल ऐसे ही पशोपेश में बीते| तभी पीछे से किसी ने मुझसे पूंछा कि मुझे कहाँ जाना है| मैंने उनका नाम बताया और उस व्यक्ति ने मुझे अपने साथ आने को कहा| मेरी स्थिति अभी भी सामान्य नहीं थी| मै यंत्रवत पीछे चल पड़ा थोड़ी दूर चलने के बाद वो व्यक्ति एक टी पॉइंट (T) पर रुका और उसने एक मकान की तरफ इशारा करके बताया कि आपको उस मकान में जाना है जिसमे बाहर कुछ लोग बैठे है| मैंने आव देखा न ताव और तुरंत उस ओर कदम बड़ा दिया| लेकिन मात्र दो कदम चलते ही मुझे अहसास हुआ कि मुझे उस व्यक्ति को धन्यवाद तो देना ही चाहिए था| मै तुरंत ही दो कदम पीछे लौटा| मुझे इस बीच किसी दरवाजे को खोले जाने या बंद होने की कोई आवाज़ भी सुनाई नहीं पडी थी| लेकिन दूर दूर तक उस रास्ते में को नहीं था| मै विस्मित था कि कोई इतनी जल्दी कैसे गायव हो सकता था|
जिनको लेने मै आया था उनसे मिलके मै वापस आया अब वो मुझे गाडी तक वापस छोड़ने आये थे| उनके घर में कुछ मेहमान आये थे अतः उन्होंने अगले दिन आने को कह कर हम लोगों को विदा किया| वहां से निकलने के बाद हम सभी कानपुर अपने घर आये|

घर में मेरे चाचाजी, जोकि सामान्यत: रात में 9.30 तक सो जाया करते थे वो हमारा इन्तजार कर रहे थे| उन्होंने मुझसे पूंछा कि मै उनको घर से निकलने से लेकर लौटने तक का पूरा विवरण बताऊ| मुझे अभी तक सब कुछ सामान्य ही लगा था| लेकिन चाचाजी के बार बार आग्रह करने पर मैंने उनसे पूँछ की क्या बात है| उनके यह बताने पर कि मेरे घर छोड़ने के कुछ देर बाद गुरु महाराज ने उनसे क्या बात की थी| अब मुझे हर बात सामान्य से असामान्य लगने लगी थी|

गुरु महाराज ने कुछ वर्षो बाद अपने शरीर छोड़ दिया| लेकिन मेरी यादो में वो हमेशा है| उनका आशीर्वाद मेरे साथ हमेशा रहेगा|

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संजय निगम

संजय निगम 1 month ago

स्वयं का विस्मयकारी आश्चर्यजनक अनुभव

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 1 month ago

बहुत सुन्दर और रोमांचकारी संस्मरण..!

संजय निगम1 month ago

धन्यवाद सर

समीक्षा
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