कविताअतुकांत कविता
कविता
शीर्षक-मन की पीड़ा
कुछ जमी पर तन के टुकड़े
कुछ जमी पर मन के मुखड़े
कुछ जमी पर जन के दु ख़ड़ो
को बटोर ले हम
वह किसी झरना का साहिल
उसको हम कर लेंगे हासिल
भावना सी वह धरा जो
आज़ हमको खोजति है
क्लांत मन सी आह को सुनकर
माँ भी पथ पे रोति है
साथ में रोता धरति-अम्बर
रोता है वह नीलगगन
वह निशाकर भी रोता है
रोता हे अपना चमन
हसता अर्नव् भी चुप होकर
रोता हे बस आंहे भरकर
चिल्लाकर बोला दीवाकर
क्यों रोते हो तुम आहे भरकर
अभी बहा दु झर-झर-झरने
कोमलता के दीप जला दु
समर की ठंडी लहरे बहा दु
लहरो में होगा स्पंदन
कभी ना होगा कोई क्रन्दन
पूंछ लू में तप्त आसु
आसुओँ की धार हे
जो गिरी थी बून्द कोमल
उसमे भी बस प्यार है
उसमे भी बस प्यार है
कवि-मुरली टेलर"मानस"
ईमेल-murlitailor011@gmail.com
आपने कोशिश बहुत अच्छी की हैं सरल शब्दों में कहें तो शाब्दिक चयन बहुत अच्छा है। बस टँकन त्रुटियाँ अखर जाती हैं वह भी धीरे धीरे सही हो जाएंगी। आप लिखते रहें और हम सबको पढवाते रहे और आपकी रचना सब जगह शेयर करते रहे ??
जी बहोत बहोत धन्यवाद