कवितागजल
नये दौर के बच्चों में नादानियाँ कहाँ रही
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दादी - नानी की वो कहानियाँ कहाँ रही
बची बुजुर्गों की वो निशानियाँ कहाँ रही
मोबाइलों में इस कद्र क़ैद हुआ बचपन
कागज़ की अब वो कश्तियाँ कहाँ रही
बिन तेरे ज़िन्दगी जेठ का मास लगे है
रातों में भी वो मीठी चाँदनीयाँ कहाँ रही
जिनके हँसते ही खिला करते थे कँवल
बदलते दौर में अब वैसी कुड़ियाँ कहाँ रही
पापा के कंधो पे बैठ फूलकर कुप्पा होना
छोटी छोटी बातों में वो खुशियाँ कहाँ रही
जिसे सुनते ही नींद सुकूँ की आ जाती थी
माओं के कंठ में अब वो लोरियाँ कहाँ रही
वो कंचे,वो फुगड़ी , वो कट्टी पक्की का खेल
नये दौर के बच्चों में वो नादानियाँ कहाँ रही
दूर के रिश्ते की बहन भी भेजती थी राखी
पक्की अब वैसी कच्ची डोरियाँ कहाँ रही
मिटटी खाकर भी बीमार न पड़ते थे कभी
अब वैसी शुद्ध मिटटी की ढेरियाँ कहाँ रही
अश्क आँखों में लिए पूछता हूँ मैं ग़ज़ल में
वो प्यारी सी सुकून की वादियाँ कहाँ रही
मिठाई रहीम,सिवइयाँ "अमोल" खाता था
नये दौर में वैसी ईद ,दिवालियाँ कहाँ रही
स्वलिखित तथा पूर्णतया मौलिक
सी यस बोहरा
"अमोल"
उर्दू शब्दों के हिंदी अर्थ :-
फूलकर कुप्पा होना :- ख़ुशी से इतराना
कँवल :- कमल
कुड़ियाँ:- कुड़ी का बहुवचन ,लडकियां ( कुड़ी पंजाबी शब्द है )
सत्य
आपकी बेलौस मोहब्बतों बेपनाह नवाज़िशों और नजरे इनायत का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीया Anujeet Iqbal जी