कवितालयबद्ध कविता
तुम......
तुम धूप हो तुम छाँव हो
पसरी हुई निस्तब्धता में
जीवन्त हुआ एक ठाँव हो
घिर-घिर कर जब आया तम
तुमने ही दीया जलाया
जब जब हाथों से छूटे हाथ
तुमने ही हृदय बिछाया
अभिलाषा को प्राण दिए
मन को फिर आकाश दिया
विकल हुई बुझती लौ को
अपना स्नेह प्रकाश दिया
संसृति की साध मिटी जब-जब
तुमने ही नवसंचार किया
खिलते-हँसते मधुमास दिए
अपना सारा अभिसार दिया
मृतप्राय हुए चिंतन को
स्पंदन का अधिकार दिया
शीतल,संसिक्त स्नेह दिए
प्रतिक्षण नूतन संसार दिया
(बीना अजय मिश्रा)
ठाँव शब्द समझ नही आया ? शायद मैंने पहली बार सुना है। बाकी रचना पढ़ी बहुत सुंदर लिखती हैं आप ?