कवितालयबद्ध कविता
नारी
सृष्टि सृजन, जीवन का प्रारंभ है नारी
मृत्यु तक पग पग पल पल है सहयात्री नारी
निःसंदेह है ममता का सागर, प्रकृति सा अनंत, कोमल
घर की लक्ष्मी, अभिमान, शान, है आधार तल
ज्ञान, सुंदरता की देवी, अनमोल अतुल्य है नारी
पर केवल पवित्र मंदिर मूरत सी पूजनीय नहीं नारी
एक सीमा तक सही है, परंतु हो रहा है अब अति
चाहिए स्वतंत्रता भी, पैरों की जंजीर बन रहा है यही
सड़कों पर अकेले चलने से रोका जाता है
अनहोनी का डर का साया मन में छाया रहता है
निर्मल निर्दोष हो कर भी उस पर लांछन आता है
सौ सवाल और सौ बंदिश उस पर ही थोपा जाता है
पर जो निकले हिम्मत कर, भय माया जाल से
बना कर इतिहास, निकले आगे वर्तमान काल से
साहस से आसमान छेदा, अंतरिक्ष, लड़ाकू विमान उड़ाया
सामाजिक रूढ़ी तोड़ कर, अर्थी को भी शमशान पहुंचाया
फलना फूलना है तो, रुख हवा का बदलना होगा
पानी सा हर बर्तन के रूप में ना ढलना होगा
जीवन तो संघर्ष में है, सिर्फ पुरूषों के छत्रछाया में नहीं
अपनी शौर्य शक्ति से बदल दे ग्रह, नक्षत्र राशि
तन को नहीं स्त्री मन देखो, दुर्बलता नहीं शक्ति है नारी