कविताअतुकांत कविता
प्रवासी मजदूर
जिस आदमी के बदन से
कोसों दूर से दुर्गंध आती हो
जिसके वस्त्र फटे, मैले कुचैले हों
कई दिनों से नहाया न हो
चिलचिलाती धूप में सिककर,
जिसका रंग तवे सा स्याह हो गया हो
होठों पर सुर्ख, रक्त-पपड़िया जम आई हों
पांवों पर छालों की बाढ़ सी आ गई हो
जिसकी सूखी अंतड़ियां,
क्षीण हड्डियां, खाली जेबें,
उसकी लाचारी, बेबसी का
बखान करती हों
उसे भला कोई कैसे गले लगा सकता है? कैसे कोई उसे प्रेम कर सकता है?
क्या कर सकता है, उसे कोई प्रेम??
कर सकता है...
जिसकी आंखें इंतजार में पथरा गई हों
रोटी का पहला निवाला भी
थाली में ज्यों का त्यों रखा हो
जो द्वार तक आकर
खाली उदास लौट जाती हो
जिसकी नींद, सुख - चैन सब
छिन गया हो
वह कर सकता है प्रेम..
ऐसे दुर्गन्धित, मलीन आदमी को।
हाँ, उसका परिवार कर सकता है
उससे ऐसा प्रेम।
उस आदमी का पिता चूम सकता है
पसीने से लथपथ उसका माथा
माँ ले सकती हैं उसकी असंख्य बलैयां
औरत बतिया सकती है उससे,
आंखों ही आंखों में बेपनाह
आंसुओं की झड़ी लगा सकते हैं
उसके मासूम, लाचार बच्चे।
वे सब भर सकते हैं,
उसे अपनी कमजोर,
कंपकंपाती बाजुओं में,
बिना परवाह किए
उसकी बेबसी, मज़बूरी, लाचारी
उसकी उस गरीबी की..
जिस गरीबी को देख उसे,
तिरस्कृत कर दिया गया,
उस शहर द्वारा
जिस पर उसने स्वयं का
सर्वस्व न्योछावर कर दिया
सिर्फ, दो जून की रोटी खातिर,,
उस शहर से उसे प्रेम नहीं मिला!!
मिलता भी कैसे??
वह अनभिज्ञ था इस बात से
कि जिस शहर में वह
बरसो से रह रहा है,
उस शहर के शहरवासी
असल में इंसान थे ही कहाँ।
लक्ष्मी मित्तल