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सम्भल जा ज़रा - Sandeep Chobara (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

सम्भल जा ज़रा

  • 162
  • 4 Min Read

?सम्भल जा ज़रा?

ए-दोस्त......
सम्भल जा ज़रा
पछताएगा,रोएगा
अपने किए दुष्कृत्यों पर
फिर सोच सोच कर.......

अभी समय है
बच सकता है तो बच
बचा सकता है तो बचा
अपनों के अहसासों को
अपनों के अरमानों को........

तुमसे ही तो सारी उम्मीदें हैं
तुम ही तो पालनकर्ता हो
अब तुम ही नहीं सम्भलोगे तो
बाकी सबका कौन है ......?

रोक सकता है तो रोक
थाम सकता है तो थाम
इनके हाथों को
जो छुट गए हैं तुमसे
जो बिछड़ रहे हैं तुमसे.........

समझ सकता है तो समझ
जान सकता है तो जान
घर से ही तो अपने हैं
तेरे बगैर घर कैसा
अपना सकता है तो अपना
मना सकता है तो मना
रूठे हुए अपनों को..........

वे तुम्हें माफ़ कर देंगे
तू अपनी गलती स्वीकार करके तो देख
कुछ नहीं बिगड़ा है अभी
वापिस आ सकता है तो आ
तेरे लिए दरवाजे खुले हैं
देख तेरा इंतजार आज भी है..........!!

संदीप चौबारा
फतेहाबाद
१३/०९/२०२०
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Champa Yadav

Champa Yadav 4 years ago

बहुत खूब....

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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प्रपोजल
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माँ
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