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"बग़ैर"
कविता
आता नहीं है बशर कभी फ़न कोई उस्ताद के बग़ैर
फ़न कोई उस्ताद के बग़ैर आता नहीं
*तू जमाने बग़ैर मुतमईन नहीं है*
होगी इन्तेहा-ए-जहां आदमी के बग़ैर
जियेबग़ैर बसर हो जाएगी
सूना है फ़लक महताब के बग़ैर
जीना हमको गवारा न हुआ
सपनों के महल
काफिया पैमाईश के बग़ैर
तेरे बग़ैर जीकर मैंने क्या मरना है
शीरीं किसीकी हुई नहीं फ़रहाद के बग़ैर
हमारे बग़ैर भी आबाद थी दुनिया
बग़ैर गलतियों के तो कोई तजुर्बा ही नहीं
बग़ैर तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के दी गई तालीम
धनत्रयोदशी का मिले वरदान बुलन्द हो नाम आपका
उसके चाहे बग़ैर कहींपर पत्ता नहीं हिल सकता
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