कविताअन्य
दोपहर की धूप में झुलसती
थके कदमों से पगडंडी को नापती,
मलिन चेहरा,भावशून्य सा
चैतन्य हो मंत्रणा करता
आज न सोना पड़े भूखा,
दैनिक मन:स्थिति से उलझती
लकीरों को बदलने की
निरर्थक कोशिश करती,
सहेजती मिट्टी के बर्तनों को,
भूखे नंगे बचपन को,
और अपाहिज सपनों को,
आँचल संभालती वह बेकल
दृढ़ निश्चय को थामे,
हाट की ओर चली ऐसे की मानो
अंतहीन कर्मपथ पर चली,
पर उम्मीदों के अस्त होते ही
लौटती मन में आह लिए,
निष्प्राण काया लिए,
कटे पंखों को समेटती
कातर हो सोचती,
भूख से नही अब जंग होगी
नन्ही आंखों में
पहले सी चमक होगी,
कितने अमावस बाद
घर में दीवाली आयी है
क्योकि सपनों के साथ
वह आज अपना
सर्वस्व भी बेच आयी है...