कविताअतुकांत कविता
वक्त के विरुद्ध
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जन्म से लेकर अब तक
खेलते रहे हर वक्त
अब वक्त ने खेला ऐसा
जीने मरने लायक भी
नहीं रहने दिया
मैं जा रहा हुं
वक्त के विरुद्ध
वक्त रुका जो है
मजे ज़िंदगी के ले रहा है
मैं हारा नहीं हुं
वक्त से अबतक
जीवित हूं जबतक
चलूंगा जीवन रुकने तलक
वक्त रोकेगा ज़रूर
मेरे कदमों को
दिन आखरी होगा वो
जिस दिन में रूक जाऊंगा
मैं जानता हूं
रास्ते में कंकड़ पत्थर ही मिलेंगे
कुछ दूर तलक जाकर
मुझे मंज़िल भी मिलेंगी
अकेला हूं राह में
कोई नहीं है साथ
जाना तो है
जीवन जीना है
हर हाल
अनजान रास्तों पर
कोई नहीं है साथ
मुस्किल रास्ता है
हार नहीं मानूंगा
मेरी परछाई
और मैं हूं यहां
ए धरती गगन
चांद और तारे
ये हवाएं भी हैं
सभी तो हैं साथ
इस अनजानी डगर
नहीं हूं अकेला मैं
खुशी इस बात की है
रोकने कोई नहीं आएगा
मेरे कदमों को
आंसू बह रहे
पोंछने कोई नहीं आएगा
हौसला टूटा या
मैं टूटा बिखरा हूं
देखने कोई नहीं आएगा
मैं हारूंगा या जीतूंगा
पूछने कोई नहीं आएगा
अब रूकने की बात नहीं
चलना ही नियति है
जो वक्त गुज़र गया
बदल नहीं सकता हूं मैं
लेकिन आज़ को
ख़ुद लिख सकता हूं मैं
मेरे वक्त से नहीं
ख़ुद से हारा था मैं
अब भी अवसर मिला है मुझे
जीत कर आऊंगा मैं
___दुबे पुनीत सोनम