कहानीसामाजिकप्रेरणादायकअन्य
लघुकथा
"सपनों के उस पार..."
"देख बेटा, जिद मत कर। तूने इतनी मेहनत, इतनी पढ़ाई इसलिए नहीं की कि तू उन सड़ी-गली बस्तियों में अपनी जान खपाये। फिर सोच ले।" श्रुति के पापा ने उससे कहा।
"मैंने यह फैसला सोच-समझकर ही किया है पापा।" श्रुति ने विचारमग्न मुद्रा में जबाब दिया।
"और तेरे सपने, तेरी उड़ानों का क्या? सिटी हॉस्पिटल का वो चेम्बर, जो अक्सर तेरे सपनों का हिस्सा हुआ करता है; उसका क्या?" पापा ने थोड़े निराशाजनक स्वर में पूछा।
"उड़ान किसे प्यारी नहीं लगती? मैं भी उड़ना चाहती हूँ, सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहती हूँ। लेकिन, जब इन सीढियों के दोनों ओर बनी खाइयों को देखती हूँ तो सिहर जाती हूँ कि यदि मैं भी इन्हीं खाइयों का एक हिस्सा होती तो...? और बाढ़ के इस भयावह मंजर के बाद तो... सोचते हुए भी डर लगता है।" कहते हुए श्रुति की आँखें भय से सिकुड़ गयी।
" तो तुम्हें लगता है कि तुम अकेले इस खाई को पाट पाओगी?" पिता ने प्रश्नवाचक दृष्टि से पूछा।
" पाट नहीं सकती तो क्या हुआ? एक कोशिश तो कर ही सकती हूँ। बिना पहली सीढ़ी पर चढ़े भला कोई कैसे शिखर तक पहुँच सकता है?" कहते हुए श्रुति की आँखों में सौ सूर्य एक साथ चमक उठे।
अजय गोयल
मौलिक रचना
गंगापुर सिटी (राजस्थान)