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'कविता' - someshwar pandeya (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

'कविता'

  • 40
  • 9 Min Read

कविता क्या है?

उसनेसोचा
चलो
घमू आते हैं,
देखें
कौन-कहाँ-कैसे
समझ आते हैं।
खेत खलिहान से
होती हुई,
वो बैलों के गले
की घंटी के नूपुर
सी डोलती
-
मधुर -मधुर बोलती
गाँव की
आखिरी बस से
उड़ती धूल संग
शहर में आकर
गाँव के होरी
के पसीने
में कुछ नम हो गयी।

रंग बिरंगी रौशनी,
चकाचौंध सड़कें
सजे हुए बाजार
आदमी के
और
आदमी के लिए भी !
कविता सकपकाई
मदहोश मनचलों
के इशारे देख
घबराई !
गला सूखा, सोचा
पानी पी लूँ !
कहाँ मिलेगा ?
गाँव का पीपल वाला
पोखर, कहाँ?
हर शै
बिक रही है यहाँ।
आगे बढ़ी तो
लोगों की कतार
देखी,
दूर आती हुई
एक कार देखी।
धक्का-मुक्की में
बंधे हुए बांस पर
आगे आने की
दौड़ में
नेता जी को
दिख जानेकी
होड़ में
एक दूसरे को
धकेलते लोग देखे।
आगे बढ़ी तो
रंगों में बंटा इक समाज देखा
एक ही पिता के पुत्रों का
आपसी फसाद देखा
कपूतों के पाप ढोती
मैली होती नदी देखी
हताश्रित बच्चेऔर
बढ़ूे माँ-बाप देखे
ठेकेदार और बिचौलिए के
ठाठ देखे
मजदूर और किसान
लाचार देखा
शैतान देखा
हैवान देखा

भ्रष्ट देखा
बेईमान देखा
मुफ़्त की रेवड़ियाँ
पानेवालों की सूची में
दिवगंत का नाम देखा।
और
न कुछ देखो, न बोलो
न सुनो को इंगित करता
गुमसुम, डरा, सहमा
अतंर की पीड़ा और बाहरी
धुएं से दम तोड़ता 'इन्सान' देखा।
उफ़ ! यह सब देख
दम घटुने लगा
उसका,
भागी
बदहवास
पिंजरे से छूटी
चिड़िया की तरह
खेतों - खलिहानों
की ओर,
जहां
आगँ न में बंधी
मंगला
उससे बातें
करती है
और उसका
दुधमुहाँ
उसके साथ
इस - उस आँगन
बेरोकटोक
कुलांचे भरता है
और यहाँ कोई
अकेला नहीं है,
वो झूठ और
दिखावे का मेला
नहीं है।
मफ़ुलिसी है
पर यहाँ
मिट्टी, रोटी, सूट और पूत
सब अपने हैं,
सगे हैं।
पर ओह !
कहीं-कहीं
यहाँ भी
कच्चे-सच्चे घर
अब
इस-उस रंग में
रंगने लगे हैं,
पर अभी भी
शहर से बेहतर है।
और...
और वो
छोटी पहाड़ी
का देवदार
उसे भला कैसे
भलू सकती है
टहनी - टहनी
उसके शब्द
उस पर आकाश तक
उड़ान भरते हैं
और वह जान जाती है
कि जीवन क्या है!
सघंर्ष क्या है!
सफलता क्या है!
सच क्या है ।
और कविता .........क्या है!

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someshwar pandeya

someshwar pandeya 6 months ago

आभार

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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प्रपोजल
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माँ
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