कवितालयबद्ध कविता
"प्रेम का पक्ष.."
पतली उजली लकीर सा चाँद,
मैं अकेली एक छोर ,तुम अकेले एक छोर...
सतह मिली तो बढ़ने लगे फिर..
मैं चली तुम्हारी ओर,तुम चले आए मेरी ओर...
प्रेम की मिलकर ज्योत जलाई,
तुम मेरे मन चोर पिया,मैं बनी तेरी चितचोर...
आधा उजला झूले सा चाँद,
गीत गाते भाव विभोर,तुम चंदा मैं बनी चकोर...
पूर्ण होने को आतुर सा चाँद ...
न तुम्हारा हिय पर काबू,न मेरे जी पर था जोर...
पूर्णिमा में उजला सा चाँद..
होकर दूजे में सराबोर,ठोकर मारे दुनिया के तौर...
फिर...
आंच धीमी करता सा चाँद...
न रहा तब मेरा ठिकाना,न रहा तेरा कोई ठौर...
अंधेरों से घिरता सा चाँद...
तुम चले हाथों को छोड़ , मैं ढूंढूं रस्ता कोई और...
फिर बना लकीर सा चाँद...
मैं अकेली एक छोर,तुम अकेले एक छोर...
अमावस में डूबता सा चाँद...
आँखों में अब चुभती यादें,चुभती एकाकी बन कर शोर ...
"शुक्ल" पक्ष में बढ़ता प्रेम,"शुक्ल" पक्ष में चढ़ता चाँद...
"कृष्ण" पक्ष में बिफरी "राधा",बिछड़ गए तब "राधा श्याम"