इकत्तीस दिसम्बर की शाम हूँ मैं!
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London is the capital city of England.
कवितालयबद्ध कविता
"प्रेम का पक्ष.."
पतली उजली लकीर सा चाँद,
मैं अकेली एक छोर ,तुम अकेले एक छोर...
सतह मिली तो बढ़ने लगे फिर..
मैं चली तुम्हारी ओर,तुम चले आए मेरी ओर...
प्रेम की मिलकर ज्योत जलाई,
तुम मेरे मन चोर पिया,मैं बनी
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कवितालयबद्ध कविता
"राहें और मंजिल"
हाथों की लकीर सी राहें,
नसीब सी मेरी मंज़िल...
उमड़ती काली बदरी सी राहें,
बरखा सी मेरी मंज़िल....
ख्यालों के सैलाब सी राहें ,
कविता सी मेरी मंज़िल...
खग के बिखरे तिनकों सी राहें,
नीड़
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कवितालयबद्ध कविता
आज पुराना ख़त मिल गया...
खुद आईने सी हो गई और ..
मेरा बिंब ही मुझको छल गया...
एक आँच सी धधकी जब ,
धुआँ उठा दहक कर...
धुंधले आंखों से झाँका तब,
आंखों का पानी खल गया....
आज पुराना ख़त मिल गया...
ये कैसी बगावत
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कवितालयबद्ध कविता, अन्य
बाज़ार लगा था,उसी सामान का..दुकानें रंग बिरंगी थी...
मैं ढूँढने निकला उसको ,जिसकी मुझे ज़रूरत थी ...
ज़रूरत कुछ ऐसी थी कि मुश्किल मेरा जीना था...
तमाम सामानों में से मुझे कोई न कोई चुनना था...
जो जितना
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कविताअतुकांत कविता
जल चुकी चिता मगर ..अब भी है बाकी ..
साँसों का झुंड ,
आँखों की धुंध ,
और... राख का कुंड !!
अस्थि का ढेर ,
कर्मों का फ़ेर,
और... घनघोर अंधेर !!
काठ कालीख,
दुर्जन की सीख ,
और... अपनों की भीख !!
स्याही - दवात ,
डायरी
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कविताअतुकांत कविता
खरीदी है मैंने पंख अपनी ,
रखकर आज़ादी को गिरवी !!
उड़ रही हूँ पंख लिए ,
उड़ती ही रहूँगी जब तक
छुड़ा ना लूँ पंखदार से
अपनी गिरवी पड़ी आज़ादी ...
नहीं देखनी राह किसी की
जो ले आए आज़ादी मेरी ..
एक जगह से दूजे
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कविताअतुकांत कविता
एक दुखिया की बेटी थी...
यूं ही बिस्तर पर लेटी थी ...
वह लेटे लेटे सो गई ...
अपने सपनों में खो गई ...
देखा उसने एक हसीन सपना ...
था उसका भी एक घर अपना ....
नींद खुली तो देखा क्या ...
था यथार्थ नहीं सपना ...
आ गया था
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कवितालयबद्ध कविता
दौड़ धूप से भागे भागे ,
आदत से मजबूर माँ..
राहें तेरी ताक रहा हूं,पर जाने तू कहाँ है माँ...
नहीं तौलिया तो आँचल से,
पसीना पोंछा करती थी माँ...
आज पसीने सूखे यूं ही,
आँचल तेरा कहाँ है माँ....
राहें तेरी
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कवितालयबद्ध कविता
मैं फलक राग की रागिनी ,
जो गाओ तो बनूँ संगीत ।
बाँसुरी के तान से छूटी ..
वीणा के तारों में टूटी ..
आरोह बन आकाश चढ़ी ..
अवरोह गिरी पूरा कर गीत ।
मैं फलक राग की रागिनी
जो गाओ तो बनूँ संगीत ।।
कंठ की सीढ़ी
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कवितालयबद्ध कविता
छू कर देखूँ क्या आसमान!!
रातें ज़िंदगी हो गई
दिन का कोई पता नहीं...
तम में रोशनी ही रोशनी
चमक में दिखता नहीं...
हूं मोड़ पर एक कोने
बटोर रही हूं कुछ राहें
फिर छींट दूंगी डगर
जहां कोई रस्ता नहीं...
पहाड़
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