कवितालयबद्ध कविताअन्य
बाज़ार लगा था,उसी सामान का..दुकानें रंग बिरंगी थी...
मैं ढूँढने निकला उसको ,जिसकी मुझे ज़रूरत थी ...
ज़रूरत कुछ ऐसी थी कि मुश्किल मेरा जीना था...
तमाम सामानों में से मुझे कोई न कोई चुनना था...
जो जितना पसंद आया ,उसने उतना ही दाम लगाया...
फिरता हुआ बहुतों दुकान मैं खाली हाथ वापस आया..
बाज़ार में चलते चलते , मैं थोड़ा भीतर आया...
लालची कीड़ों से खुद को मैंने घिरा हुआ पाया...
सही दाम में अच्छा रिश्ता आखिर मुझको दिख गया ...
आज क्रय की बात हुई, कल ज्यादा पैसों में बिक गया...
मैं ढूँढ चला बाज़ारों में ,एक रिश्ते की तलाश किए...
फिरता गिरते लोगों को देख मन के भीतर उश्वास लिए ..
जो जितना ही नीचे गिरता उसका उतना ही ओहदा था..
व्यय भी अपना क्रय भी अपना ...जाने कैसा ये सौदा था..