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कवितानज़्म
शाम ही रहने दी ना सवेरा ही रहने दिया शब-ए-ग़म ने गोया अंधेरा ही रहने दिया जिस सुकूने - क़ल्ब के तलबगार हम रहे तेरा ही रहने दिया ना मेरा ही रहने दिया © ✒️ डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर" 🍁