कविताअतुकांत कविता
खरीदी है मैंने पंख अपनी ,
रखकर आज़ादी को गिरवी !!
उड़ रही हूँ पंख लिए ,
उड़ती ही रहूँगी जब तक
छुड़ा ना लूँ पंखदार से
अपनी गिरवी पड़ी आज़ादी ...
नहीं देखनी राह किसी की
जो ले आए आज़ादी मेरी ..
एक जगह से दूजे दर,
ना रखनी गिरवी मुझे आज़ादी ..
हाँ पंख जिनके दिए हुए ,
हैं ताक लगाए बैठे हर पल ..
बिन छुड़ाए निकल ना जाऊँ
आज़ादी, उड़ दूर कर छल..
फैला सकूंगी उतने ही पर
जो लिपटा ना जाए खंजर
तोड़ करार जो उड़ चली तो
पिंजर ही घर पिंजर अम्बर ...