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मैच्युरिटी - Krishna Tawakya Singh (Sahitya Arpan)

कहानीउपन्यास

मैच्युरिटी

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मैच्युरिटी
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भाग (1)
बँगाल से बिहार को अलग हुए 66 वर्ष हो गए थे | वे कुछ बँगाली परिवार जो नौकरी करने अथवा व्यापार करने कलकत्ता से दूर प्रांत के अन्य हिस्से में चले आए थे वे बँगला भाषी होते हुए भी बँटवारे के बाद पश्चिम बँगाल में न जाकर अपने नौकरी वाली जगह या जहाँ व्यापार करते थे वहीं बस गए | क्योंकि वहीं उनका समाज बन गया था और सबसे प्रमुख बात थी कि बने बनाए आजीविका के साधन को छोड़कर दूसरी जगह जाकर नये आजीविका के साधन खोज लेना उस जमाने में भी उतना आसान नहीं था | अंग्रेजी राज में भारतीयों को बड़ी नौकरियों में जगह बहुत मुश्किल से मिलती थी | साधारणत : पुलिस या शिक्षक के रूप में भारतीय बहाल कर लिए जाते थे जिनकी तनख्वाह काफी कम हुआ करती थी | और शासन के द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देशों का पालन करना और करवाना ही इनका मुख्य उद्देश्य होता था | जिसे ये जीवन जीने का प्रमुख उद्देश्य मानकर ,बड़ी ही दृढ़ता से निभाते थे |
ऐसे ही एक बँगाली परिवार बिहार के पूर्वी जिले में रहता था | जो जीविकोपार्जन के लिए सरकार की नौकरी पर निर्भर था | वाबू देवेन्दु राय इस परिवार के मुखिया थे | पढ़े लिखे तो ज्यादा न थे पर आजादी के आंदोलन की हवाओं ने उनके श्वांस में भी कुछ मानवीय मूल्यों के कण डाल दिए थे जिसे उन्होंने आत्मसात कर लिया था | और पूरी तरह तो नहीं कह सकते पर बहुत हद तक आदर्शवादी हो गए थे |
पहले लड़कियों की शादी तो बाल्या अवस्था में हो ही जाती थी | लड़कों की शादी के लिए भी उनके जवान होने का शायद ही इंतजार किया जाता था | कहने का अर्थ यह कि बाबू देवेन्दु राय की शादी की बात भी चलने लगी थी | अभी मुश्किल से नवीं कक्षा में पहुँचे थे | मूँछ अपनी रेखाएँ भी नहीं बना पायी थी और हाफ पैंट की डोरियाँ भी कभी कभी लपेटने में भी कभी भूल चुक हो जाती थी | उन्हें एक और जिम्मेवारी की डौर में बाँधने की बात परिवार में आजकल चलने लगी थी | जिसका अहसास बाबू देवेन्दु राय को तो था लेकिन उसे जिम्मेवारी न समझकर एक कौतुहल की वस्तु समझकर ही वह मन ही मन खुश हो लिया करते थे |

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दादी की परी
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