कवितालयबद्ध कविता
उठते ही ढूँढूँ चारों ओर,वो मेज़ किनारे जा छुप जाती..
मैं चौंधियाई आँखें मींचूँ ,वो हाल देख मेरा मुस्काती..
फिर टोह टटोलकर जैसे तैसे हाथ जहाँ वो मेरे आती..
झट गोद उठा आँखों का तारा,आँखों के सामने बिठाती..
दुलारी सर चढ़ बैठी मेरी ऊँगलियों से खुसफुसाती..
नाक चढ़े कानों को ऐंठे,आँखों की मेरे धुंध हटाती...
जो शब्द गिर गए काग़ज़ पे,वो उसे उठा कर मुझे दिखाती..
हर शब्द फिर बड़े प्रेम से, सहेज काग़ज़ पर सजाती
मन के उफान जो लिखने हो,वो चढ़ कर सर मेरे लिखाती..
अपने ही शब्द जो ना दिखे वो मेरी कविता मुझे सुनाती..
जो धुंधली हो चली थी राहें , साफ़ साफ़ मुझको दिखलाती ..
साथी मेरी वो "सारथी"
दुनिया में "ऐनक" कहलाती ।।