कवितालयबद्ध कविता
मैं फलक राग की रागिनी ,
जो गाओ तो बनूँ संगीत ।
बाँसुरी के तान से छूटी ..
वीणा के तारों में टूटी ..
आरोह बन आकाश चढ़ी ..
अवरोह गिरी पूरा कर गीत ।
मैं फलक राग की रागिनी
जो गाओ तो बनूँ संगीत ।।
कंठ की सीढ़ी मेरा वास ..
तल्लीन हो जो चढ़ी हो श्वांस ..
कानों मे मिश्रित कर के मिश्री..
बना जो स्वर ही मेरा मीत।
मैं फलक राग की रागिनी
जो गाओ तो बनूँ संगीत ।।
व्यंजन के व्यंजन की चटोरी ..
मीठे शब्दों की प्यास भी थोड़ी..
अलंकार की तश्तरी में ..
परोसे अद्भुत आहार ख़लीत।
मैं फलक राग की रागिनी
जो गाओ तो बनूँ संगीत।।
फलक की ही हूँ बुनावट...
राग चाँदनी की सजावट...
तारों की परछाईं जुगनू...
झींगुर के सुर की हूँ आहट..
चाँद का सरगम तारें गाएँ ..
सूरज के सप्तक किरणें लाएँ ..
आकाश फैली आकाशगंगा ...
सब मिल कर गायें सुर नवनीत ..
मैं फलक राग की रागिनी
हूँ वही राग..हूँ वही संगीत ...!!